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श्राद्धविधि प्रकरणम् करनेवाले वृक्ष भी चारों ओर से शोक करते हों ऐसे मालूम होने लगे। उन लोगों के दुःख से अतिशय दुःखी हो वहां न रह सकने के कारण मानो सूर्य भी उसी समय पश्चिम समुद्र में डूब गया (अस्त हो गया)। पूर्वदिशा की ओर से फैलते हुए अंधकार को अशोकमंजरी के विरह से उत्पन्न हुए शोक ने मार्ग दिखा दिया जिससे वह तुरन्त ही सुखपूर्वक वहां सर्वत्र प्रसरित हो गया। जिससे शोकातुर लोग और भी अकुलाये। मलीन वस्तु के कृत्य ऐसे ही होते हैं। थोड़ी देर के अनन्तर अमृत के समान रश्मिधारी सुखदायी चन्द्रमा त्रैलोक्य को मलीन करनेवाले अंधकार को दूर करता हुआ प्रकट हुआ। जैसे सजलमेघ लताओं को तृप्त करता है, वैसे ही मानो चन्द्रमा ने मन में मानो दया लाकर ही अपनी चंद्रिका (चांदनी) रूप अमृतरस की वृष्टि से तिलकमंजरी को प्रसन्न की। .. पश्चात् रात्रि के अंतिम प्रहर में जैसे मार्ग की जाननेवाली मुसाफिर स्त्री उठती है, वैसे ही मन में कुछ विचार करके तिलकमंजरी उठी, और निष्कपट मन से सखियों को साथ लेकर उद्यान के अंदर स्थित गोत्रदेवी चक्रेश्वरी के मंदिर में शीघ्र गयी। और परमभक्ति से कमलपुष्पों की मालाओं से पूजा करके उसे विनती की कि–'हे स्वामिनी! मैंने जो मन में कपट रहित भक्ति रखकर सर्वकाल तेरी पूजा, वंदना और स्तुति की हो तो आज मेरे ऊपर अनुग्रहकर अपनी पवित्रवाणी से मेरी बहन की शुद्धि बता। हे मातेश्वरी! अगर यह बात तुझसे न बनेगी तो, 'यह समझ ले कि मैंने आजन्म. पर्यंत भोजन का त्याग किया। कारण कि कौन नीतिमान् मनुष्य अपने इष्टव्यक्ति के अनिष्ट की मन में कल्पना आने पर भोजन करता है?
तिलकमंजरी की भक्ति, शक्ति और बोलने की युक्ति देखकर चक्रेश्वरी देवी प्रसन्न होकर शीघ्र प्रकट हुई। मनुष्य मन की एकाग्रता करे तो क्या नहीं हो सकता? देवी ने हर्षपूर्वक कहा कि, 'हे तिलकमंजरी! तेरी बहन कुशल पूर्वक है। हे वत्से! तू खेद को त्याग कर दे और भोजन कर। एक मास के अंदर तुझे अशोकमंजरी मिलेगी और दैवयोग से उसी समय उसका व तेरा मिलाप भी होगा। जो तू पूछना चाहे कि उसका मिलाप कहां व किस प्रकार होगा? तो सुन-सघनवृक्षों के कारण कायरमनुष्य जिसे पार नहीं कर सकता वैसी इस नगर की पश्चिम दिशा में कुछ दूर पर एक अटवी (वन) है। उस समृद्ध अटवी में राजा का हाथ तो क्या? परन्तु सूर्य की किरणे भी कहीं प्रवेश नहीं कर सकती। वहां के श्रृगाल भी अन्तःपुरवासिनी राजस्त्रियों की तरह कभी भी सूर्य का दर्शन नहीं कर सकते। वहां मानो आकाश से सूर्य का विमान ही उतरा हो ऐसा श्री ऋषभदेव भगवान् का एक रत्नजड़ित सुशोभित मंदिर है। आकाश में शोभित पूर्णचन्द्र की तरह उस मंदिर में श्रेष्ठ चन्द्रकान्तमणि की जिनप्रतिमा बिराजमान है। मानो उस प्रतिमा को स्वयं विधाता ने ही कल्पवृक्ष, कामधेनु, कामकुंभ आदि वस्तुओं से महिमा का सार लेकर बनायी हो! हे तिलकमंजरि! तू उस प्रशस्त और अतिशय से जागृत प्रतिमा की पूजा कर, जिससे तेरी बहन की शुद्धि मिलेगी और मिलाप भी होगा।