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श्राद्धविधि प्रकरणम्
271 के वेग से अकस्मात् हिंडोला टूट गया और उसके साथ ही लोगों के मन का क्रीड़ारस भी नष्ट हो गया। शरीर में की नाड़ी टूटने से जैसे लोग आकुलव्याकुल होते हैं वैसे ही हिंडोले के टूटते ही सब लोग व्याकुल हो हाहाकार करने लगे। इतने में ही मानो आकाश में कौतुक से गमन करती हो इस तरह अशोकमंजरी हिंडोले सहित वेग से आकाश में जाती हुई दृष्टि में आयी। तब लोग उच्च स्वर से कोलाहल करने लगे कि, 'हाय हाय! कोई यम के समान अदृश्य पुरुष इसको हरण किये जा रहा है!!।' प्रचंड मनुष्य और बाणों के समूह को धारण करनेवाले, शत्रु को संमुख न टिकने देनेवाले शूरवीर पुरुष झड़प से वहां आये व खड़े रहकर ऊंची दृष्टि से अशोकमंजरी का हरण देख रहे थे, परन्तु वे कुछ भी न कर सके। ठीक ही है अदृश्य अपराधी को कौन शिक्षा कर सकता है।
राजा कनकध्वज कान में शूल उत्पन्न करे ऐसा कन्या का हरण सुनकर क्षणमात्र वज्रप्रहार से पीड़ित मनुष्य की तरह अतिदुःखित हुआ। 'हे वत्स! तू कहांगयी? तू मुझे दर्शन क्यों नहीं देती? हे शुद्धचित्ते! क्या तूने पूर्व का अपार प्रेम छोड़ दिया? हाय हाय!!' राजा विरहातुर होकर इस प्रकार शोक कर रहा था, कि इतने में एक सेवक ने आकर कहा, 'हाय हाय! हे स्वामिन्! अशोकमंजरी के शोक से जरित तिलकमंजरी जैसे प्रचंड वेग से वृक्ष की मंजरी गिर जाती है, वैसे मूर्छित होकर पड़ी है, वह ऐसी मालूम होती है मानो कंठ में प्राण रखकर अशरण हो गयी हो?' घाव पर क्षार पड़ने अथवा जले हुए स्थान पर छाला होने के समान यह वचन सुन राजा कनकध्वज कुछ मनुष्यों के साथ शीघ्र ही तिलकमंजरी के पास आया। चंदनादि शीतल उपचार करने से बड़े प्रयास से वह सचैतन्य हुई और विलाप करने लगी-'मदोन्मत हस्ति के समान गतिवाली मेरी स्वामिनी! तू कहां है? मुझ पर अपूर्व प्रेम होते हुए तू मुझे यहां छोड़कर कहां चली गयी? हाय हाय! मुझ अभागिणी के प्राण तेरे वियोग से शरण रहित और चारों ओर से बाण द्वारा बिंधे हुए के समान हुए अब किस प्रकार रहेंगे? हे तात! मैं जीवित रह गयी इससे बढ़कर दूसरी कौनसी अनिष्ट की बात है? मेरी भगिनी का असह्यवियोग में अब कैसे सहन करूं?' इस प्रकार विलाप करती हुई तिलकमंजरी पागल की तरह धूल में लौटने तथा मछली की तरह तड़पने लगी। जैसे दावानल के स्पर्श से लता सूखती है वैसे वह खड़ी-खड़ी ही इतनी सूख गयी कि किसीको भी उसके जीवन की आशा न रही। इतने में उसकी माता भी वहां आकर इस प्रकार विलाप करने लगी—'हे दुर्दैव! तूने निर्दयी होकर मुझे ऐसा दुःख क्यों दिया? मेरी एक पुत्री को तो तु हरण कर ले गया और दूसरी मेरे देखते-देखते मृत्यु को प्राप्त होगी? हाय! हाय! मैं मारी गयी। हे गोत्रदेवियाँ! वनदेवियाँ! आकाशदेवियाँ! तुम शीघ्र आओ
और मेरी इस कन्या को दीर्घायु करो।' रानी की सखियां, दासियां और नगर की सती स्त्रियां वहां आकर रानी के दुःख में स्वयं दुःखी होकर उच्च स्वर से अतिशय विलाप करने लगी। उस समय वहां के सर्व मनुष्य शोकातुर थे। 'अशोक' नाम धारण