Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 287
________________ 276 श्राद्धविधि प्रकरणम् विघ्न करनेवाली शतघ्नी और दूसरे हाथ में परचक्र को कालचक्र समान चक्र; इस प्रकार बीसों हाथों में क्रमशः बीस आयुध धारणकर वह बड़ा ही भयंकर हो गया। वैसे ही, एक मुख से सांड की तरह डकारता, दूसरे मुख से तूफानी समुद्र के समान गर्जना करता, तीसरे मुख से सिंह के समान सिंहनाद करता, चौथे मुख से अट्टहास्य (खिलखिला कर हंसना) करता, पांचवें मुख से वासुदेव की तरह भारी शंख बजाता, छठे मुख से मंत्रसाधक पुरुष की तरह दिव्यमंत्रों का जाप करता, सातवें मुख से एक बड़े बंदर की तरह हक्कारव करता, आठवें मुख से पिशाच की तरह उच्चस्वर से भयंकर किलकिल शब्द करता, नवमें मुख से गुरु की तरह कुशिष्यरूपी सेना को तर्जना करता तथा दशवें मुख से वादी जैसे प्रतिवादी को तिरस्कार करता है, वैसे रत्नसारकुमार को तिरस्कार करता हुआ वह भिन्न-भिन्न चेष्टा करनेवाले दश मखों से मानो दशों दिशाओं को समकाल में भक्षण करने को तैयार हुआ ऐसा दिखता था। एक दाहिनी और एक बाई दो आंखों से अपनी सेना के तरफ अवज्ञा और तिरस्कार से देखता, दो आंखों से अपनी भुजाओं को अहंकार व उत्साह से देखता, दो आंखों से अपने आयुधों को हर्ष व उत्कर्ष से देखता, दो आंखों से तोते को आक्षेप और दया से देखता, दो आंखों से हंसिनी की तरफ प्रेम व समझावट से देखता, दो आंखों से तिलकमंजरी की तरफ अभिलाषा व उत्सुकता से देखता, दो आंखों से मयूर पक्षी की और इच्छा व कौतक से देखता, दो आंखों से जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा तरफ उल्लास व भक्ति से देखता, दो आंखों से कुमार के तरफ ईर्ष्या और क्रोध से देखता तथा दो आंखों से कुमार के तेज को भय तथा आश्चर्य से देखता हुआ वह विद्याधर राजा मानो अपनी-अपनी बीस भुजाओं की स्पर्धा से ही अपनी बीस आंखों से उपरोक्त कथनानुसार पृथक्-पृथक् बीस मनोविकार प्रकट करता था। पश्चात् वह यम की तरह किसीसे वश में न हो ऐसा प्रलयकाल की तरह किसीसे सहा न जाये ऐसा और उत्पात की तरह जगत् को क्षोभ उत्पन्न करनेवाला होकर आकाश में उछला। उसके महान् भयंकर और अद्भुत साक्षात् रावण के समान स्वरूप को देखकर तोता डरा। ठीक ही है, ऐसे क्रूर स्वरूप के संमुख कौन खड़ा रह सकता है? दावाग्नि को जलती हुई ज्वाला को पीने की कौन मनुष्य इच्छा करता है? अस्तु, भयभीत तोता श्रीराम के समान रत्नसारकुमार की शरण में गया। अनन्तर विद्याधर राजा ने इस प्रकार ललकार की-'हे कुमार! दूर भाग जा, वरना अभी नष्ट हो जायेगा, अरे दुष्ट! निर्लज्ज! अमर्याद! निरंकुश! तू मेरे जीवन की सर्वस्व हंसिनी को गोद में लेकर बैठा है? अरे! तुझे बिलकुल किसीका भय या शंका नहीं? जिससे तू अभीतक मेरे संमुख खड़ा है। हे मूर्ख! सदैव दुःखी जीव की तरह तू शीघ्र मर जायेगा।' जिस समय वह उक्त तिरस्कार वचन बोल रहा था उस समय तोता शंका से, मयूर कौतुक से, कमलनयनी तिलकमंजरी त्रास से और हंसिनी संशय से कुमार के मुख तरफ देख रही थी। इतने में कुमार ने किंचित् हंसकर कहा-'अरे! तू वृथा क्यों

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