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श्राद्धविधि प्रकरणम्
291 रत्नसारकुमार मन में विचार करने लगा कि, 'मेरे पुण्योदय से यह राक्षस मुझे राज्य देता है। मैंने तो पूर्व में साधु मुनिराज के पास परिग्रह परिमाण नामक पांचवां अणुव्रत ग्रहण किया है, तब राज्य ग्रहण का भी नियम किया है, और अभी मैंने इस राक्षस के संमुख स्वीकार किया है कि, 'जो तू कहेगा वही मैं करूंगा' यह बड़ा संकट आ पड़ा! एक तरफ गड्ढा और दूसरी तरफ डाकू, एक तरफ शेर और दूसरी तरफ पर्वत का गहरा गड्ढा, एक तरफ पारधी और दूसरी तरफ पाश ऐसी कहावतों के अनुसार मेरी दशा हो गयी है। जो व्रत का पालन करता हूं, तो राक्षस की मांग वृथा जाती है, और राक्षस की मांग पूरी करूं तो स्वीकार किये हुए व्रत का भंग होता है। हाय! अरे रत्नसार! तू महान् संकट में पड़ गया!! दूसरा चाहे कुछ भी मांगे तो भी कोई भी उत्तमपुरुष तो वही बात स्वीकार करेगा कि जिससे अपने व्रत का भंग न हो। कारण कि, व्रत भंग हो जाने पर बाकी रहा ही क्या? जिससे धर्म में बाधा हो ऐसी सरलता किस काम की? जिससे कान टूट जाये, ऐसा सुवर्ण हो तो भी वह किस कामका?जहां तक दांत पड़ना संभव नहीं, वहां तक ही कपूर खाना चाहिए। विचक्षण पुरुषों ने सरलता,शरम, लोभ. आदि गुण शरीर के समान बाह्य समझना; और स्वीकार किया हुआ व्रत अपने जीव के समान मानना चाहिए। तुम्बे का नाश होने पर नदी किनारे जाने से क्या प्रयोजन? राजा का नाश होने पर योद्धाओं का क्या प्रयोजन? मूल जल जाने पर विस्तार का क्या प्रयोजन? पुण्य का क्षय हो जाने पर औषधि का क्या प्रयोजन? चित्त शून्य हो जाने पर शास्त्रों का क्या प्रयोजन? हाथ कट जाने पर शस्त्रों का क्या प्रयोजन? वैसे ही अपने स्वीकार किये हुए व्रत के खंडित होने पर दिव्य ऐश्वर्य सुख आदि का क्या प्रयोजन? ____ यह विचारकर उसने राक्षस को परम आदर से तेजदार और सारभूत वचन कहा कि, हे राक्षसराज! तूने कहा सो उचित है, परन्तु पूर्वकाल में मैंने गुरु के पास नियम स्वीकार किया है कि, महान् पापों का स्थान ऐसा राज्य को ग्रहण नहीं करूंगा। यम और नियम इन दोनों की विराधना की हो तो ये तीव्र दुःख देते हैं। जिसमें यम भंग तो आयुष्य के अंत में ही दुःख देता है, परन्तु नियम भंग तो जन्म से लेकर सदैव दुःखदायी है। इसलिए हे सत्पुरुष मेरा नियम भंग न हो ऐसा चाहे जो कष्ट साध्य कार्य कह उसे मैं शीघ्र करूंगा।' राक्षस ने क्रोध से कहा कि, 'अरे! व्यर्थ क्यों गाल बजाता है? मेरी प्रथम मांग तो व्यर्थ गयी और अब दूसरी बार मांग करने को कहता है! अरे पापी! जिसके लिये संग्राम आदि पापकर्म करना पड़े, उस राज्य का त्याग करना उचित है, परन्तु देवों के दिये हुए राज्य में पाप कहां से हो? अरे मूढ! मैं समृद्ध राज्य देता हूं, तो भी तू लेने का प्रमाद करता है? अरे! सुगंधित घृत पाते हुए खाली 'बू-बू' ऐसा शब्द करता है? रे मूर्ख! तू बड़े अभिमान से मेरे महल में गाढ निद्रा में सो रहा था! और मेरे से पांव के तलुवे भी मसलवाये!! हे मृत्युवश अज्ञानी! तू मेरे कथन को हितकारी होते हुए भी नहीं मानता है, तो अब देख कि मेरे फलदायी क्रोध के कैसे कटु फल हैं?'
यह कह जैसे गिद्धपक्षी मांस का टुकड़ा उठाकर जाता है वैसे वह राक्षस शीघ्र