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श्राद्धविधि प्रकरणम् उनकी प्रतिष्ठाएं, जिनमंदिर, चतुर्विध संघ का वात्सल्य, अन्य दीनजनों पर उपकार आदि उत्तमोत्तम कृत्य चिरकाल तक किये। ऐसे श्रेष्ठ कृत्य करना यही लक्ष्मी का फल है। उसके सहवास से उसकी दोनों स्त्रियां भी उसीके समान धर्मनिष्ठ हुई। सत्पुरुषों के सहवास से क्या नहीं होता? अन्त में आयुष्य पूर्ण होने पर दोनों स्त्रियों के साथ शुभध्यान से देह त्यागकर बारहवें अच्युतदेवलोक में गया। यह गति श्रावक के लिए उत्कृष्ट मानी गयी है। रत्नसारकुमार का जीव वहां से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में अवतरेगा, और जैनधर्म की सम्यग् रीति से आराधनाकर शीघ्र मोक्षसुख प्राप्त करेगा। इस प्रकार उपरोक्त चरित्र को बराबर ध्यान में लेकर भव्यजीवों को पात्रदान में तथा परिग्रहपरिमाण व्रत आदरने में पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए। भोजन के समय :
साधु आदि का योग हो तो उपरोक्त कथनानुसार यथाविधि पात्रदान अवश्य करे। वैसे ही भोजन के समय पर अथवा पूर्व आये हुए साधर्मिको को भी यथाशक्ति अपने साथ भोजन करावे। कारण कि, साधर्मिक भी पात्र ही कहलाता है। साधर्मिकवात्सल्य की विधि आदि का वर्णन आगे करेंगे। इसी प्रकार दूसरे भी भिखारी आदि लोगों को उचित दान देना। उनको निराश करके पीछे नहीं फेरना। कर्मबन्धन नहीं कराना। धर्म की अवहेलना भी न कराना। अपने मन को निर्दय न रखना। भोजन के समय द्वार बन्द करना आदि महान् अथवा दयालुपुरुषों का लक्षण नहीं है। सुनने में भी ऐसा आता है कि, चित्रकूट में चित्रांगद राजा था। उस पर चढ़ाईकर शत्रुओं ने चित्रकूट गढ़ घेर लिया। शत्रुओं के अन्दर घुस आने का बड़ा डर होते हुए भी राजा चित्रांगद प्रतिदिन भोजन के समय पोल का दरवाजा खुलवाता था। गणिका ने यह गुप्त भेद प्रकट कर दिया जिससे शत्रुओं ने गढ़ जीत लिया....इत्यादि। इसलिए श्रावक को और विशेष करके ऋद्धिमंत श्रावक को भोजन के समय द्वार बन्द कभी भी नहीं करना चाहिए। कहा है कि अपने उदर का पोषण कौन नहीं करता? परन्तु पुरुष वही है जो बहुत से जीवों का उदर पोषण करे। इसलिए भोजन के समय आये हुए अपने बान्धवादिको अवश्य भोजन कसना चाहिए। भोजन के अवसर पर आये हुए मुनिराज को भक्ति से, याचकों को शक्ति के अनुसार और दुःखीजीवों को अनुकंपा से सन्तुष्ट करने के अनंतर ही भोजन करना उचित है। आगम में भी कहा है कि सुश्रावक भोजन करते समय द्वार बंद न करे। कारण कि, जिनेन्द्रों ने श्रावकों को अनुकम्पा दान की मनायी नहीं की है। श्रावक को चाहिए कि भयंकर भवसागर में दुःख से पीड़ितजीवों के समुदाय को देखकर मन में जाति पांति अथवा धर्म का भेद न रखते हुए द्रव्य से अन्नादिक देकर तथा भाव से सन्मार्ग में लगाकर यथाशक्ति अनुकम्पा करे। श्री भगवती प्रमुखसूत्रों में श्रावक के वर्णन के प्रसंग में 'अवंगुअदुआरा(वारा)' यह विशेषण देकर' श्रावक को साधु आदि लोगों के प्रवेश करने के लिए हमेशा द्वार खुला रखना' ऐसा कहा है।