Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

View full book text
Previous | Next

Page 306
________________ 295 श्राद्धविधि प्रकरणम् दर्शन और चारित्र जैसे भव्यजीवों को आ मिलते हैं, वैसे नित्य मित्रता रखनेवाले तीनों मित्र श्रीसार को आ मिले। कहा है कि संदेशा भेजने के समय दूत की, संकट आने पर बान्धवों की, आपत्ति आ पड़ने पर मित्रों की और धन चला जाये तब स्त्री की परीक्षा की जाती है। मार्ग में जंगल आया तब वे चारों व्यक्ति एक राहगीरों (काफला) के दल के साथ चल रहे थे, परन्तु कर्म की विचित्रगति से उनका साथ छूट जाने से मार्ग भूल गये। तीन दिन तक क्षुधातृषा से पीड़ित हुए इधर-उधर भटकते एक गांव में आये, और भोजन की तैयारी करने लगे। इतने में जिनका भव थोड़ा बाकी रहा है ऐसे एक जिनकल्पि मुनिराज उनके पास भिक्षा लेने तथा उनको उत्कृष्ट वैभव देने के लिए आये। राजकुमार भद्रकस्वभावी था इससे उसने उच्चभाव से मुनिराज को भिक्षा दी, और भोगफल कर्म उपार्जित किया। मुनिराज को भिक्षा देने से दो मित्रों को हर्ष हुआ। उन्होंने मन, वचन,काया से धर्म की अनुमोदना की। ठीक ही है,समानमित्रों के समान ही पुण्य उपार्जन करना उचित है। सब दे दो, ऐसा योग फिर हमको कब मिलेगा? इस प्रकार दोनों मित्रों ने अपनी अधिक श्रद्धा बताने के लिए कपट वचन कहे। क्षत्रियपुत्र का स्वभाव तुच्छ था, इससे वह दान के समय बोला कि, हे कुमार! मुझे बड़ी भूख लगी है अतएव कुछ तो रख लो। इस प्रकार वृथा दान में अंतराय करके भोगान्तराय कर्म बांधा। पश्चात् राजा के बुलाने से अपने-अपने स्थान को गये और हर्षित हुए। उन चारों को क्रमशः राजकुमार को राज्य, श्रेष्ठीपुत्र को श्रेष्ठीपद, मंत्रीपुत्र को मंत्रीपद और क्षत्रियपुत्र को सेनानायक का पद मिला। वे अपना-अपना पद भोगकर क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हुए। सत्पात्र दान के प्रभाव से श्रीसारकुमार रत्नसार हुआ। श्रेष्ठिपुत्र और मंत्रीपुत्र इसकी स्त्रियां हुई। कारण कि कपट करने से स्त्रीभव प्राप्त होता है। क्षत्रियपुत्र तोता हुआ। कारण कि दान में अन्तराय करने से तिर्यंचपना प्राप्त होता है। तोते में जो बड़ी चतुरता है, वह पूर्वभव में ज्ञान को बहुत मान दिया था उसका कारण है। श्रीसार का छुड़ाया हुआ चोर तापसव्रत पालनकर इसे सहायता करनेवाला चन्द्रचूड़ देवता हुआ। राजा आदि लोगों ने मुनिराज के ये वचन सुनकर पात्रदान को आदरणीय मानकर सम्यगरीति से जैनधर्म का पालन करना अंगीकार किया। सत्य ही है,तत्त्वका ज्ञान हो जाने पर कौन प्रमाद करता है? सत्पुरुषों का स्वभाव जगत् में सूर्य के समान शोभायमान होता है। कारण कि, सूर्य जैसे अंधकार का नाशकर लोगों को सन्मार्ग में लगाता है, वैसे ही सत्पुरुष भी अज्ञानान्धकार को दूर करके लोगों को सन्मार्ग में लगाते हैं। अत्यन्त पुण्यशाली रत्नसारकुमार ने अपनी दो स्त्रियों के साथ चिरकाल उत्कृष्ट सुख भोगे। अपने भाग्य से ही इच्छित द्रव्य मिल जाने से उसने धर्म और काम इन दो पुरुषार्थों का ही परस्पर बाधा न आये इस रीति से सम्यक् प्रकार से साधना की। उसने रथयात्राएं, तीर्थयात्राएं, अरिहंत की चांदी की, सुवर्ण की तथा रत्न की प्रतिमाएं,

Loading...

Page Navigation
1 ... 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400