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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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ही होते हैं। इस शत्रु को अब किस प्रकार से मारूं ? फल की तरह नख से उसका मस्तक तोड़ डालुं? अथवा गदा से इसका एकदम चूर्ण कर डालूं? किंवा छुरी से खरबूजे की तरह इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूं? अथवा जलते हुए नेत्र से निकलती हुई अग्नि से जैसे कामदेव को शंकर ने भस्म कर डाला उसी प्रकार इसे जला डालूं? अथवा गेंद की तरह इसे आकाश में फेंक दूं? अथवा इसी प्रकार सोता हुआ उठाकर स्वयंभूरमण समुद्र में डाल दूं? किंवा अजगर की तरह इसे निगल जाऊं? या यहां आकर सोये हुए मनुष्य को न मारूं ? शत्रु भी घर आये तो उसका अतिथिसत्कार करना ही चाहिए। कहा है कि सत्पुरुष अपने घर आये हुए शत्रु की भी महेमानी करते हैं। | शुक्र गुरु का शत्रु है. और मीनराशि गुरु का स्वगृह कहलाता है, तो भी शुक्र जब मीनराशि में आता है तब गुरु उसको उच्च स्थान देता है। अतएव यह पुरुष जागृत हो वहां तक अपने भूतसमुदाय को बुलाउं । पश्चात् जो उचित होगा, वह करूंगा।
राक्षस यह विचार कर वहां से चला गया व बहुत से भूतों को बुला लाया। तो भी कन्या का पिता जैसे कन्यादान करके निश्चित होकर सो रहता है वैसे कुमार पूर्व की तरह ही सो रहा था। यह देख राक्षस ने तिरस्कार से कहा - ' अरे अमर्याद ! मूढ ! बेशरम ! निडर ! तू शीघ्र ही मेरे महल में से निकल जा, अन्यथा मेरे साथ युद्ध कर।' राक्षस के इन तिरस्कार वचनों से तथा भूतों के किलकिल शब्द से कुमार की निद्रा भंग हो गयी। उसने सुस्ती में होते हुए ही कहा कि, 'अरे राक्षसराज ! भोजन करते मनुष्य के भोजन में अन्तराय करने की तरह, सुख से सोये हुए मेरे समान विदेशी मनुष्य की निद्रा में तूने क्यों भंग किया ? १ धर्म की निंदा करनेवाला, २ पंक्ति का भेद करनेवाला, ३ अकारण निद्रा भंग करनेवाला, ४ चलती हुई कथा में अन्तराय करनेवाला, और ५ अकारण रसोई करनेवाला, ये पांचों मनुष्य महान् पातकी हैं। इसलिए मुझे पुनः निद्रा आ जावे इस हेतु से ताजा घृत के मिश्रण युक्त शीतल जल से मेरे पैर के तलुवे मसल।' कुमार के ये वचन सुनकर राक्षस ने मन में विचार किया कि, 'इस पुरुष का चरित्र जगत् से कुछ अलग ही दिखायी दे रहा है ! इसके चरित्र से इन्द्र का भी हृदय थरथर कांपे, तो फिर अन्य साधारण जीवों की बात ही कौनसी? बड़े आश्चर्य की बात है कि, यह मेरे द्वारा अपने पैर के तलुवे मसलवाने का विचार करता है! यह बात सिंह पर सवारी करके जाने के समान है। इसमें शक नहीं कि इसकी निडरता कुछ अद्भुत प्रकार की ही है ! इसका कैसा बड़ा साहस? कैसा भारी पराक्रम? कैसी धृष्टता ? और कैसी निडरता ? विशेष विचार करने में क्या लाभ है? सम्पूर्ण जगत् में शिरोमणि के सदृश सत्पुरुष आज मेरा अतिथि हुआ है, अतएव एक बार मैं इसके कहे अनुसार करूं।'
ऐसा चिन्तन करके राक्षस ने घृतयुक्त शीतल जल के द्वारा अपने कोमल हाथों से कुमार के पग के तलुवे मसले । किसी समय भी देखने, सुनने अथवा कल्पना तक करने में जो बात नहीं आती वही पुण्यशाली पुरुषों को सहज में मिल जाती है। पुण्य की लीला कुछ पृथक् ही है। 'राक्षस सेवक की तरह अपने पग के तलुवे मसल रहा