Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 290
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 279 जावे। पैदल का स्वामी वह विद्याधर राजा अपनी भागी हुई इष्टविद्या को देखने के लिए उसके पीछे तीव्र वेग से दौड़ता गया। संयोगनिष्ठ (परस्पर संयोग से बने हुए) दो कार्यों में जैसे एक का नाश होने से दूसरेका भी नाश हो जाता है, वैसे ही विद्या का लोप होते ही विद्याधर राजा का भी लोप हो गया। कहां तो सुकुमार और कहां वह कठोर विद्याधर। तथापि कुमार ने विद्याधर को जीता, इसका कारण यह है कि जहां धर्म हो वहीं जय होती है। विद्याधर राजा के सेवक भी उसके साथ ही भाग गये। ठीक ही है दीवे के बुझ जाने पर क्या पीछे उसकी प्रभा रहती है? तदनंतर जैसे राजा सेवक के साथ महल में आता है, वैसे कुमार दुर्जयशत्रु को जीतने से उत्कर्ष पाये हुए देवता के साथ प्रासाद में आया। कुमार का अतिशय चमत्कारिक चरित्र देखकर तिलकमंजरी हर्ष से पुलकित होकर मन में विचार करने लगी कि, त्रैलोक्य में शिरोमणी के समान यह तरुणकुमार पुरुषों में रत्न है। इसलिए भाग्यवश मेरी बहन जो अभी मिल जाय तो ऐसे पति का लाभ हो' इस प्रकार विचार करती, मन में उत्सुकता, लज्जा और चिन्ता धारण करनेवाली तिलकमंजरी के पाससे कुमार ने बालिका की तरह हंसिनी को उठा ली। हंसिनी कहती है कि, 'धीरशिरोमणी, सर्वकार्यसमर्थ, वीररत्न हे कुमारराज! तू चिरकाल जीवित व विजयी रह। हे क्षमाशील कुमार! दीन, दरिद्री, भयातुर और अनार्य ऐसा मैंने अपने लिये तुझे बहुत खेद उत्पन्न किया, उसके लिये क्षमा कर। वास्तव में विद्याधर राजा के समान मुझ पर उपकार करनेवाला कोई नहीं। कारण कि, उसीके भय से मैं अनंत पुण्यों से भी अलभ्य तेरी गोद में आकर बैठी, धनवान पुरुष के प्रसाद से जैसे निर्धन पुरुष सुखी होता है, वैसे ही हमारे सदृश पराधीन व दुःखी जीव तेरे योग से चिरकाल सुखी रहें।' कुमार बोला—'हे मधुरभाषिणी हंसिनी! तू कौन है? विद्याधर ने तुझे किस प्रकार हरण की? और यह मनुष्य वाणी तू किस प्रकार बोलती है? सो कह।' हंसिनी ने उत्तर दिया-'हे कुमार! विशालजिनमंदिर से सुशोभित वैताढ्य पर्वत के शिखर के अलंकारभूत 'रथनूपुरचक्रवाल' नामक नगरी का रक्षक और स्त्रियों में आसक्त 'तरुणीमृगाङ्क' नामक विद्याधर राजा है। एक वक्त उसने आकाश मार्ग से जाते हुए कनकपुरी में मनोवेधक अंगचेष्टा करनेवाली 'अशोकमंजरी' नामक राजकन्या देखी। समुद्र चन्द्रमा को देखकर जैसे उमड़ता है वैसे ही हिंडोले पर क्रीड़ा करती हुई साक्षात् देवाङ्गना समान उस कन्या को देखकर वह कामातुर हो गया। पश्चात् उसने तूफानी पवन उत्पन्न करके हिंडोले सहित उस राजकन्या को हरण की। और शबरसेना नामक घोर वन में रखी। वहां वह हरिणी की तरह भय पाने लगी व टिटहरी के समान आक्रंद करने लगी। विद्याधर राजा ने उसको कहा, 'हे सुन्दरि! तू भय से क्यों कांपती है? इधर-उधर क्यों देखती है? और आनंद भी क्यों करती है? मैं कोई बन्दीगृह में रखनेवाला चोर या परस्त्रीलंपट नहीं, परन्तु तेरे असीम भाग्य से तेरे वशीभूत हुआ एक

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