Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 280
________________ श्राद्धविधि प्रकरणम् 269 को अपार हर्ष हुआ। ठीक है, चाहे पुत्र हो या पुत्री, परन्तु जो सर्व में श्रेष्ठ हो तो किसको न आनंद न हो? अस्तु, कुसुमसुन्दरी गर्भवती हुई। क्रमशः गर्भ के प्रभाव से उसका शरीर फीका (पांडु) पड़ गया। मानो गर्भ पवित्र होने के लिए पाण्डुवर्ण के मिष से वह निर्मल हुई हो। गर्भ में जड़ को (जल को) रखनेवाली कादंबिनी (मेघमाला) जो कृष्णवर्ण हो जाती है, तो गर्भ में जड़ (मूद) को न रखनेवाली कुसुमसुन्दरी पाण्डुवर्ण हुई यह योग्य ही है। जिस प्रकार श्रेष्ठनीति कीर्ति और लक्ष्मीरूपी जोड़े को प्रसव करती है उसी तरह यथासमय कुसुमसुन्दरी ने एक ही समय दो कन्याएं प्रसव की। राजा ने एक का अशोकमंजरी व दूसरी का तिलकमंजरी नाम रखा। वे दोनों कन्याएं पांच धायमाताओं से प्रतिपालित होती हुई मेरुपर्वत स्थित कल्पलताओं की तरह बढ़ने लगी। कुछ ही काल में वे दोनों समस्तकलाओं में कुशल हो गयी। एक तो उन कन्याओं के रूप सौंदर्य में प्रथम ही कोई कमी नहीं थी, तथापि स्वाभाविक सुन्दर वनश्री जैसे वसन्तऋतु के आगमन से विशेष शोभायमान होती है. वैसे ही वे नवयौवन अवस्था के आने से विशेष शोभने लगी। मानो कामदेव ने जगत् को जितने के लिए दोनों हाथों में धारण करने के लिए दो खड्ग ही उज्ज्वल कर रखें हों ऐसी उन कन्याओं की शोभा दिखती थी। सर्पकी दो जीभ समान अथवा क्रूर ग्रह के दो नेत्रों के समान जगत् को क्षोभ (कामविकार) उत्पन्न करनेवाली उन दोनों कन्याओं के संमुख अपना मन वश रखने में किसीका भी धैर्य स्थिर न रहा, सुख में,दुःख में, आनन्द में अथवा विषाद में एक दूसरे से भिन्न न होनेवाली, सर्वकार्यों से एक समान उन कन्याओं की जन्म से बंधी हुई पारस्परिक प्रीति को जो कदाचित् उपमा दी जाय तो दो नेत्रों की ही दी जा सकती है,कहा है कि सहजग्गिराण सहसोविराण सहहरिससोअवंताणं। नयणाण व धन्नाणं, आजम्मं निच्चलं पिम्मं ॥१॥ अर्थः साथ में जगनेवाली, साथ में सोनेवाली (बंद होनेवाली), साथ में हर्षित होनेवाली और साथ में शोक करनेवाली दो आंखों की तरह जन्म से लेकर निश्चल प्रेम को धारण करनेवालों को धन्य है। जब वेकन्याएं युवावस्था में आयीं तब राजा विचार करने लगा कि, 'इनको इन्हीं के समान वर कौन मिलेगा? रति प्रीति को जैसे एक कामदेव वर है, वैसे इन दोनों के लिए एक ही वर की शोध करनी चाहिए। पृथक्-पृथक् वर जो कदाचित् इनको मिले तो दोनों को परस्पर विरह होने से प्राणान्त कष्ट होगा। इस जगत् में इनके लिए कौनसा भाग्यशाली वर उचित है? एक कल्पलता को धारण कर सके ऐसा एक भी कल्पवृक्ष नहीं, तो दोनों को धारण करनेवाला कहां से मिल सकेगा? जगत् में इनमें से एक को भी ग्रहण करने योग्य वर नहीं है। हाय हाय! हे कनकध्वज! तू इन कन्याओं का पिता होकर अब क्या करेगा? योग्य वर का लाभ न होने से निराधार कल्पलता के समान इन लोकोत्तर निर्भागी कन्याओं की क्या गति होगी?' इस प्रकार अतिशयचिन्ता के ताप से

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