Book Title: Shraddhvidhi Prakaranam Bhashantar
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Jayanandvijay

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Page 279
________________ 268 श्राद्धविधि प्रकरणम् उत्पन्न करनेवाला शोध अभी तक क्यों नहीं लगता?' तोता बोला, 'हे मित्र! विषाद न कर। हर्ष धारण कर। शुभशकुन दृष्टि आते हैं जिससे निश्चय आज तापसकुमार की प्राप्ति होगी।' इतने में ही दिव्य वस्त्रों से सुसज्जित सर्व दिशाओं को प्रकाशित करती हुई एक सुन्दर स्त्री संमुख आयी, वह मस्तक पर रत्नसमान शिखाधारी, परम मनोहर, सुन्दर पंखोंसे सुशोभित,मधुरकेकारवयुक्त,अपनी अलौकिक छबि से अन्य सर्वमयूरों को हरानेवाले तथा इन्द्र के अश्व से भी तीव्रगतिवाले एक दिव्य मयूर पर आरूढ़ थी। उसके शरीर की कान्ति दिव्य थी। स्त्री धर्म की आराधना करने में निपुण वह स्त्री प्रज्ञप्तिदेवी के समान दिखती थी। कमलिनी की तरह उसके सर्वांग से कमलपुष्प के समान सुगन्धी वृष्टि होती थी। उसकी सुन्दर युवावस्था देदीप्यमान हो रही थी। और उसका लावण्य अमृत के समान लगता था। साक्षात् रंभा के समान उस स्त्री ने श्री आदिनाथ भगवान् को वन्दना की और पश्चात् वह मयूर के ऊपर बैठकर ही नृत्य करने लगी। उसने एक निपुण नर्तकी के समान चित्ताकर्षक हस्तपल्लवको कंपाकर, अनेक प्रकार के अंगविक्षेप से तथा मन का अभिप्राय व्यक्त करनेवाली अनेक चेष्टा से और अन्य भी नृत्य के विविध प्रकार से मनोहर नृत्य किया। उस नृत्य को देखकर कुमार व तोते को इतना हर्षोल्लास प्राप्त हुआ कि वे मंत्रमुग्ध हो गये। वह मृगलोचनी स्त्री भी सुस्वरूपकुमारको देखकर उल्लास से विलास करती हुई बहुत समय तक आश्चर्यचकित सी हो रही। पश्चात् कुमार ने उससे कहा, 'हे सुन्दर स्त्री! जो तुझे खेद न हो तो मैं कुछ पूछना चाहता हूं।' उसने उत्तर दिया, 'पूछो, कोई हानि नहीं।' तब कुमार ने उसका सर्व वृत्तान्त पूछा। उस स्त्री ने वाक्चातुरी से प्रारम्भ से अन्त तक अपना मनोवेधक वृत्तान्त कह सुनाया। यथा__'सुवर्ण की शोभा से अलौकिकसौन्दर्य को धारण करनेवाली कनकपुरी नगरी में, अपने कुल को देदीप्यमान करनेवाला कनकध्वज (स्वर्णपताका) के समान कनकध्वज नामक राजा था। उसने अपनी प्रसन्नदृष्टि से तृणको भी अमृत समान कर दिया। ऐसा न होता तो उसके शत्रु दांत में तृण पकड़ उसका स्वाद लेने से मृत्यु टालकर किस प्रकार जीवित रहते? प्रशंसा के योग्य गुणवती तथा इन्द्राणी के समान सुन्दर स्वरूपशाली कुसुमसुन्दरी नामक उसकी राजमहिषी थी। वह एक दिन सुखनिद्रा में सो रही थी इतने में उसे एक सुन्दर कन्या की प्राप्ति करानेवाला स्वप्न दृष्टि में आया। उसके स्वप्न में ऐसा सम्बन्ध था कि मन में रति और प्रीति इन दोनों का जोड़ा कामदेव की गोद में से उठकर मानों प्रीति से उसकी गोद में जाकर बैठा। शीघ्र जागृत हुई कुसुमसुन्दरी ने विकसित कमल की तरह अपने नेत्र खोले। भारी जलप्रवाह से भराई हुई नदी की तरह उसका हृदय अकथनीय आनन्द प्रवाह से परिपूर्ण हो गया। उसने स्वप्न का यथावत् वर्णन राजा से कह सुनाया। स्वप्नविचार के ज्ञाता राजा ने उसका यह फल बताया कि, 'हे सुन्दरि! विधाता की सृष्टि में सर्व श्रेष्ठ व जगत् में सारभूत ऐसा एक कन्या का युगल तुझे प्राप्त होगा।' यह सुन कन्या का लाभ होते हुए भी रानी

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