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श्राद्धविधि प्रकरणम्
किसी नगर के मार्ग में पड़ा हुआ एक रत्नजड़ित कुंडल उनकी दृष्टि में आया । देव श्रेष्ठी सुश्रावक, दृढ़व्रत और परधन को अनर्थ का मूल समझनेवाला होने से उसने लिखा नहीं। यशश्रेष्ठी ने उस समय तो न लिया पर थोड़ी देर बाद 'पड़ी हुई वस्तु लेने में अधिक दोष नहीं।' यह विचारकर उसने वृद्धदेव श्रेष्ठी की निगाह बचाकर कुंडल उठा लिया और पुनः मन में विचार किया कि, 'मेरे इस मित्र को धन्य है, कारण कि, इसमें ऐसी अलौकिक निर्लोभता है। तथापि युक्ति से मैं इसे इस कुंडल में भागीदार करूंगा।' ऐसा विचारकर कुंडल को छिपा रखा व दूसरे नगर में जाकर उस कुंडल के द्रव्य से बहुत सा किराना खरीदा। कुछ दिन के बाद दोनों अपने गाँव में आये। लाये हुए किराने का बेचने का समय आया तब बहुतसा किराना देखकर श्रेष्ठी ने आग्रहपूर्वक इसका कारण पूछा। यशश्रेष्ठी ने भी यथार्थ बात कह दी। तब देव श्रेष्ठी ने कहा, 'अन्याय से उपार्जन किया हुआ यह द्रव्य किसी भी प्रकार ग्रहण करने के योग्य नहीं । कारण कि, जैसे खराबकांजी के अंदर पड़ने से दूध का नाश हो जाता है, वैसे ही यह धन लेने से अपना न्यायोपार्जित द्रव्य भी अवश्य विनाश हो जायेगा।' यह कहकर उसने संपूर्ण अधिक किराना यश श्रेष्ठी को दे दिया। अपने आप ही पास आया हुआ धन कौन छोड़े? इस लोभ से यश श्रेष्ठी वह सब किराना अपने घर ले गया। उसी दिन रात्रि को चोरों ने यश श्रेष्ठी का संपूर्ण किराना लूट लिया । प्रातः काल में किराने के बहुत से ग्राहक आये जिससे दुगुना तिगुना मूल्य मिलने के कारण देवश्रेष्ठी को बहुत लाभ हुआ। पश्चात् यश श्रेष्ठी भी पश्चात्ताप होने से सुश्रावक हुआ । और शुद्धव्यवहार से द्रव्योपार्जन करके सुख पाया...इत्यादि ।
इस विषय पर लौकिकशास्त्र में भी एक दृष्टांत कहा है कि
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चम्पानगरी में सोम नामक राजा था। उसने मंत्री को पूछा कि, 'सुपर्व में दान देने के योग्य श्रेष्ठद्रव्य कौनसा है? और दान लेने को सुपात्र कौन है?' मंत्री ने उत्तर दिया, 'इस नगर में एक सुपात्र ब्राह्मण है । परन्तु न्यायोपार्जित शुभद्रव्य का योग मिलना सब लोगों को और विशेषकर राजा को दुर्लभ है। कहा है किदातुर्विशुद्धवित्तस्य, गुणयुक्तस्य चार्थिनः ।
दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीजक्षेत्रयोरिव ॥१॥
जैसे उत्तम बीज व उत्तम खेत का योग मिलना कठिन है, वैसे ही शुद्धचित्त दाता और योग्य गुणवन्त पात्र इन दोनों का योग मिलना भी दुर्लभ है। यह सुन सोमराजा ने पर्व के ऊपर शुद्धदान देने के हेतु से गुप्त वेश धारण कर आठ दिन तक रात्रि के समय वणिक् लोगों के दुकान पर जाकर साधारण वणिक्-पुत्र के समान काम किया, और उसके बदले में आठ द्रम्म उपार्जन किये। पर्व के दिन सब ब्राह्मणों को निमन्त्रण करके उक्त सुपात्रब्राह्मण को बुलाने के लिए मन्त्री को भेजा। उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि, 'जो ब्राह्मण लोभ से मोहवश हो राजा के पास से दान ले, वह तमिस्रादिक घोर नरक में पड़कर दुःखी होता है। राजा का दान मधु में मिश्रित किये हुए विष के समान है। समय