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श्राद्धविधि प्रकरणम्
249 उसकी प्रशंसा करे, ८० सभा का कार्य पूर्ण न होने पर भी मध्य में उठ जाये, ८१ दूत होकर संदेशा भूल जाये, ८२ खांसी का रोग होते हुए चोरी करने जाये, ८३ यश की इच्छा से भोजन का खर्च विशेष रखे, ८४ लोक-प्रशंसा की आशा से अल्प आहार करे, ८५ जो वस्तु थोड़ी हो, वह अधिक खाने की इच्छा रखे, ८६ कपटी व मधुरभाषी लोगों के पाश में फंस जाये, ८७ वेश्या के प्रेमी के साथ कलह करे, ८८ दो जनें कुछ सलाह करते हों वहां जाये, ८९ अपने ऊपर राजा की सदा ही कृपा बनी रहेगी ऐसा विश्वास रखे, ९० अन्याय से सुदशा में आने की इच्छा करे, ९१ निर्धन होते हुए धन से होनेवाले काम करने जावे, ९२ गुप्त बात लोक में प्रकट करे, ९३ यश के निमित्त अपरिचित व्यक्ति की जमानत दे, ९४ हितवचन कहनेवाले के साथ वैर करे, ९५ सब जगह विश्वास रखे, ९६ लोकव्यवहार न जाने, ९७ याचक होकर गरम भोजन करने की आदत रखे, ९८ मुनिराज होकर क्रिया पालने में शिथिलता रखे, ९९ कुकर्म करते शरमावे नहीं,१०० भाषण करते अधिक हंसे उसे मूर्ख जानना। इस प्रकार शत मूर्ख हैं।
- इसी प्रकार जिस कार्य से अपना अपयश हो वह सब त्याग देना चाहिए। विवेकविलास आदि ग्रंथ में कहा है कि विवेकीपुरुष को सभा में बगासी (जंभाई), हिचकी, डकार, हास्य आदि करना पड़े तो मुंह ढांककर करना तथा सभा में नाक नहीं खुतरना, हाथ नहीं मरोड़ना, पलांठी नहीं लगाना, पग लम्बे नहीं करना व निन्दा विकथा आदि बुरी चेष्टा नहीं करना। अवसर पर कुलीन पुरुष केवल मुस्कराकर हंसी प्रकट करते हैं, खड़खड़ हंसना अथवा अधिक हंसना सर्वथा अनुचित है। बगल बजाना आदि अंगवाद्य बजाना, निष्प्रयोजन तृण के टुकड़े करना, हाथ अथवा पैर से भूमि खोदना, नख से नख अथवा दांत घिसना आदि चेष्टाएं अनुचित हैं। विवेकीपुरुषों को भाट, चारण, ब्राह्मण आदि द्वारा की हुई अपनी प्रशंसा सुनकर अहंकार न करना चाहिए। तथा ज्ञानी पुरुष प्रशंसा करे तो उससे मात्र यह निश्चय करना कि अपने में अमुक गुण हैं, किन्तु अहंकार न करना। दूसरे के वचनों का अभिप्राय बराबर ध्यान में लेना तथा नीच मनुष्य अयोग्य वचन बोले तो उसका प्रतिवाद करने के लिए वैसे ही वचन अपने मुख में से कदापि नहीं निकालना। जो बात अतीत, अनागत तथा वर्तमान काल में भरोसा रखने के योग्य न हो, उसमें अपना स्पष्ट अभिप्राय प्रकट नहीं करना। किसी मनुष्य के द्वारा कोई कार्य कराना निश्चित किया हो तो उक्त कार्य उस मनुष्य के संमुख प्रथम से ही किसी दृष्टान्त अथवा विशेष प्रस्तावना द्वारा प्रकट करना। किसीका वचन अपने निश्चित कार्य के अनुकूल हो तो कार्यसिद्धि के अर्थ उसे अवश्य मानना। जिसका कार्य अपने द्वारा न बन सकता हो उसे प्रथम से ही स्पष्ट कह देना; मिथ्या वचन कहकर व्यर्थ किसीको भटकाना न चाहिए। चतुर मनुष्यों को किसीको कटुवचन न सुनाना। यदि अपने शत्रुओं को ऐसे वचन कहना पड़े तो अन्योक्ति से अथवा अन्य किसी बहाने से कहना। जो पुरुष माता, पिता, रोगी, आचार्य, पाहुना, भाई, तपस्वी, वृद्ध, बालक, दुर्बल, वैद्य, अपनी संतति, भाईबन्धु, सेवक, बहिन,