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श्राद्धविधि प्रकरणम् आश्रित लोग, सगे-संबंधी और मित्र के साथ कलह नहीं करता है वह तीनों लोक को वश में करता है। लगातार सूर्य की ओर नहीं देखना, इसी तरह चन्द्रसूर्य का ग्रहण, बड़े कुए का पानी और संध्या के समय आकाश न देखना। स्त्रीपुरुष की क्रीड़ा, मृगया, नग्नयुवती, जानवरों की क्रीड़ा तथा कन्या की योनि नहीं देखना चाहिए। विद्वानपुरुषों को चाहिए कि अपने मुंह की परछाई तैल में,जल में, हथियार में, मूत्र में अथवा रक्त में न देखें; कारण कि इससे आयु घटती है। स्वीकार किये हुए वचन का भंग, गयी हुई वस्तु का शोक, तथा किसीकी निद्रा का भंग कभी भी न करना। किसीके साथ वैर न करते बहुमत में अपना मत देना। स्वाद रहित कार्य हो तो भी समुदाय के साथ करना चाहिए। समस्त शुभ कार्यों में मुख्य होना। यदि मनुष्य कपट से भी निःस्पृहता बतावे तो भी उससे फल पैदा होता है। किसीको हानि पहुंचाने से बने ऐसा कार्य कभी भी करने को उत्सुक न होना। सुपात्र मनुष्यों से कभी डाह (ईर्ष्या) नहीं करना। अपनी जाति पर आये हुए संकट की उपेक्षा न करना, बल्कि आदरपूर्वक जाति का संप हो वैसा कार्य करना। क्योंकि ऐसा न करने से मान्य पुरुषों की मानखंडना व अपयश होता है। अपनी जाति को छोड़कर अन्य जाति में आसक्त होनेवाले मनुष्य कुकर्दम राजा की तरह मरणान्त कष्ट पाते हैं। परस्पर के कलह से प्रायः ज्ञातियों का नाश होता है, और यदि संप से रहें तो जल में कमलिनी की तरह वृद्धि पाते हैं। मित्र, साधर्मी, जाति का अगुआ, गुणी तथा अपनी पुत्रहीन बहन इतने मनुष्यों को दैववश दरिद्रता आ जाने पर अवश्य पोषण करना चाहिए। जिसको बडप्पन पसंद हो, उसको सारथी का कार्य, दूसरे की वस्तु का क्रय-विक्रय तथा अपने कुल के अयोग्य कार्य करने को उद्यत न होना चाहिए।
महाभारत आदि ग्रंथों में भी कहा है कि मनुष्य को ब्राह्ममुहूर्त में उठना और धर्म तथा अर्थका विचार करना। उदय होते हुए तथा अस्त होते हुए सूर्य को न देखना। मनुष्य को दिन में उत्तरदिशा में,रात्रि में दक्षिणदिशा में और कोई आपत्ति हो तो किसी भी दिशा में मुख करके मलमूत्र का त्याग करना। आचमन करके देवपूजा आदि करना, गुरु को वन्दना करना, इसी प्रकार भोजन करना। हे राजा! ज्ञानीपुरुष ने धन संपादन करने के लिए अवश्य ही यत्न करना चाहिए। कारण कि धन होने से ही धर्म, काम आदि होते हैं। जितना धन लाभ हो उसका चतुर्थ भाग धर्मकृत्य में, चतुर्थ भाग संग्रह में और शेष दो चतुर्थ भाग अपने पोषण व नित्य नैमित्तिक क्रियाओं में लगाना चाहिए। बाल समारना, दर्पण में मुख देखना तथा दांतन और देवपूजा करना इत्यादि कार्य दुपहर के प्रथम प्रहर में ही कर लेना चाहिए। अपना हित चाहनेवाले मनुष्य को सदैव घर से दूर जाकर मलमूत्र त्याग करना, पैर धोना तथा झूठन डालना।
जो मनुष्य मिट्टी के ढेले तोड़ता है, तृण के टुकड़े करता है, दांत से नख उतारता है तथा मलमूत्र करने के अनन्तर शुद्धि नहीं करता है वह इस लोक में अधिक आयु नहीं पा सकता। टूटे हुए आसन पर नहीं बैठना, टूटा हुआ कांसी का पात्र उपयोग में न