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श्राद्धविधि प्रकरणम्
कहा। अब अन्य दर्शनी लोगों के साथ किस प्रकार उचित आचरण करना, वह लेशमात्र कहते हैं।
एएसि तित्थि आणं, भिक्खट्ठमुवट्ठिआण निअगेहे।
कायव्वमुचिअकिच्चं, विसेसओ रायमहिआणं ॥ ४२ ॥
अर्थ ः अन्यदर्शनी भिक्षुक अपने घर भिक्षा के निमित्त आवे तो उनको यथायोग्य दान आदि देना। उसमें भी राजमान्य अन्यदर्शनी भिक्षा के लिए आयें, तो उन्हें विशेषतः दान आदि देना ।
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जइवि न मणमि भत्ती, न पक्खवाओ अ तग्गयगुणेसु ।
उचिअं गिहागएसुत्ति तहवि धम्मोगिहीण इमो || ४३ |
अर्थः यद्यपि श्रावक के मन में अन्यदर्शनी में भक्ति नहीं तथा उसके गुण में भी पक्षपात नहीं; तथापि अतिथि का उचित आदर करना गृहस्थ का धर्म है। -गेहागयाणमुचिअं, वसणावडिआण तह समुद्धरणं ।
दुहिआण दया एसो, सव्वेसिं संमओ धम्मो ॥ ४४ ॥
अर्थ ः अतिथि (घर आया हुआ) के साथ उचित आचरण करना, अर्थात् जिसकी जैसी योग्यता हो उसके अनुसार उसके साथ मधुरभाषण करना, उसको बैठने के लिए आसन देना, अशनादिक के लिए निमन्त्रण करना, किस कारण से आगमन हुआ? सो पूछना, तथा उनका कार्य करना इत्यादि उचित आचरण है। तथा संकट में पड़े हुए लोगों को उसमें से निकालना और दीन, अनाथ, अंधे, बहरे, रोगी आदि लोगों पर दया करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें दुःख में से निकालना। यह धर्म सर्वदर्शनियों को सम्मत है। यहां श्रावकों को ये लौकिक उचित आचरण करने को कहा, इसका यह कारण है कि जो मनुष्य उपरोक्त लौकिक उचित आचरण करने में भी कुशल नहीं वे लोकोत्तर पुरुष प्ररूपित सूक्ष्म बुद्धि से ग्रहण हो सके ऐसे जैन धर्म में किस प्रकार कुशल हो सकते हैं? इसलिए धर्मार्थी लोगों को उचित आचरण करने में अवश्य निपुण होना चाहिए। और भी कहा है किसव्वत्थ उचिअकरणं, गुणाणुराओ रई अ जिणवयणे।
अगु अ मज्झत्थं, सम्मदिट्ठिस्स लिंगाई ॥१॥
सब जगह उचित आचरण करना, गुण के ऊपर अनुराग रखना, दोष में मध्यस्थपन रखना तथा जिनवचन में रुचि रखना, ये सम्यग्दृष्टि के लक्षण हैं। समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते, पर्वत चलायमान नहीं होते, उसी तरह उत्तमपुरुष किसी समय भी उचितआचरण नहीं छोड़ते। इसीलिए जगद्गुरु तीर्थंकर भी गृहस्थावस्था में मातापिता के सम्बन्ध में अभ्युत्थान (बडे पुरुषों के आने पर आदर से खड़ा रहना) आदि करते हैं। इत्यादि नौ प्रकार का उचित आचरण है।