________________
241
श्राद्धविधि प्रकरणम् साथ ऐक्यता रखने से ही उत्तम परिणाम होता है। तो फिर जिनमंदिर आदि देवादिक के कार्य में तो अवश्य ही ऐक्यता चाहिए। क्योंकि, ऐसे कार्य तो सर्वसंघ के आधार पर हैं।
और सर्वसंघ की ऐक्यता से ही निर्वाह तथा शोभा आदि सम्भव है। इसलिए वे कार्य सब की सम्मति से करना चाहिए। स्वजनों के साथ ऐक्यता रखने के ऊपर पांच अंगुलियों का उत्कृष्ट उदाहरण है, यथा
प्रथम तर्जनी (अंगूठे के पास की) अंगुली लिखने में तथा चित्रकला आदि प्रायः सर्वकार्यों में मुख्य होने से तथा संकेत करने में, उत्कृष्ट वस्तु का वर्णन करने में, मना करने में, चिमटी आदि भरने में चतुर होने से अहंकारवश मध्यमा (बीचकी) अंगुली को कहती है कि, 'तुझमें क्या गुण है?' मध्यमा बोली, 'मैं सर्व अंगुलियों में मुख्य, बडी और मध्यभाग में रहनेवाली हूं, तंत्री, गीत, ताल आदि कला में कुशल हूं, कार्य की उतावल बताने के लिए अथवा दोष, छल आदि का नाश करने के हेतु चिमटी बजाती हूं, और टचकारे से शिक्षा करने वाली हूं।' इसी प्रकार तीसरी अंगुली से पूछा तब उसने कहा कि, 'देव, गुरु, स्थापनाचार्य साधर्मिक आदि की नवांग आदि में चन्दन पूजा, मंगलिक, स्वस्तिक,नंद्यावर्त आदि करने का, तथाजल, चन्दन, वासक्षेप चूर्ण आदि का अभिमंत्रण करना मेरे अधीन है।' पश्चात् चौथी अंगुली को पूछा तो उसने कहा कि, 'मैं पतली होने से कान खुजलाना आदि सूक्ष्म काम कर सकती हूं, शरीर में कष्ट आने पर छेदन आदि पीड़ा सहती हूं,शाकिनी आदि के उपद्रव दूर करती हूं,जप की संख्या आदि करने में भी प्रमुख हूं।' यह सुन चारों अंगुलियों ने मित्रता कर अंगूठे से पूछा कि, 'तेरे में क्या गुण हैं?' अंगूठे ने कहा, 'अलियों! मैं तो तुम्हारा पति हूं! देखो, लिखना, चित्रकारी करना, ग्रास भरना, चिमटी भरना, चिमटी बजाना, टचकार करना, मुठी बांधना, गांठ बांधना, हथियार आदि का उपयोग करना, दाढी मूंछ समारना तथा कतरना, कातना, पोंछना, पीजना, बुनना, धोना, कूटना, पीसना, परोसना, कांटा निकालना, गाय आदि दुहना,जप की संख्या करना, बाल तथा फूल गूंथना, पुष्प पूजा करना आदि कार्य मेरे बिना नहीं होते। वैसे ही शत्रु का गला पकडना, तिलक करना, श्री जिनेश्वर को अमृत का पान करना, अंगुष्ठ प्रश्न करना इत्यादि कार्य अकेले मुझ से ही होते हैं। यह सुन चारों अंगुलियां अंगूठे का आश्रयकर सर्व कार्य करने लगी।
एमाई सयणोचिअमह धम्मायरिअसमुचिअं भणिमो।
भत्तिबहुमाणपुव्वं, तेसिं तिसंझंपि पणिवाओ ॥२८॥ अर्थः स्वजन के सम्बन्ध में उपरोक्त आदि उचित आचरण जानो।
अब धर्माचार्य के सम्बन्ध में उचित आचरण कहते हैं। मनुष्य ने नित्य तीनों समय भक्तिपूर्वक शरीर और वचन से सादर धर्माचार्य को वन्दना करना।
तइंसिअनीईए, आवस्सयपमुहकिच्चकरणं च। धम्मोवएससवणं, तदंतिए सुद्धसद्धाए ।।२९।।