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श्राद्धविधि प्रकरणम्
होने पर भी परदेश में अधिक समय तक नहीं रहना, कारण कि उससे काष्ठ श्रेष्ठी आदि की तरह गृहकार्य की अव्यवस्थादि दोष उत्पन्न होता है।
मनोरथ :
बेचने आदि कार्य के आरंभ में, विघ्न का नाश और इच्छित लाभ आदि कार्य की सिद्धि के निमित्त पंचपरमेष्ठी का स्मरण करना, गौतमादिक का नाम लेना तथा कुछ वस्तुएं देव, गुरु और ज्ञान आदि के काम में आये इस रीति से रखना । कारण कि, धर्म की प्रधानता रखने से ही सर्व कार्य सफल होते हैं। धनोपार्जन के हेतु जिसे आरम्भ समारम्भ करना पड़े उस श्रावक को सात क्षेत्र में धन वापरने के तथा अन्य ऐसे ही धर्म-कृत्यों के बड़े-बड़े मनोरथ करना । कहा है कि
उच्चैर्मनोरथाः कार्याः, सर्वदैव मनस्विना । विधिस्तदनुमानेन, सम्पदे यतते यतः ॥ १ ॥
विचारवान पुरुष को नित्य बड़े-बड़े मनोरथ करना चाहिए। कारण कि, अपना भाग्य मनोरथ के अनुसार कार्यसिद्धि करने में प्रयत्न करता है। धन, काम और यश की प्राप्ति के लिए किया हुआ यत्न भी समय पर निष्फल हो जाता है, परन्तु धर्मकृत्य करने का केवल मन में किया हुआ संकल्प भी निष्फल नहीं जाता।
लाभ होने पर पूर्व में किये हुए मनोरथ लाभ के अनुसार सफल करना । कहा है
कि—
ववसायफलं विहवो, विहवस्स फलं सुपत्तविणिओगो । तदभावे ववसाओ, विवोवि अ दुग्गइनिमित्तं ॥ १ ॥
उद्यम का फल लक्ष्मी है, और लक्ष्मी का फल सुपात्र को दान देना है। इसलिए जो सुपात्र को दान न करे तो उद्यम और लक्ष्मी दोनों दुर्गति के कारण होते हैं। ऋद्धि के भेद :
सुपात्र को दान देने से ही उपार्जित की हुई लक्ष्मी धर्म की ऋद्धि कहलाती है, अन्यथा पाप की ऋद्धि कहलाती है। कहा है कि ऋद्धि तीन प्रकार की है। एक धर्मऋद्धि, दूसरी भोगऋद्धि और तीसरी पापऋद्धि । जो धर्मकृत्य में खर्च हुई वह धर्मऋद्धि, जो शरीरसुख के हेतु वापरी जाती है वह भोगऋद्धि, और जो दान तथा भोग के काम में नहीं आती वह अनर्थ उत्पन्न करनेवाली पापऋद्धि कहलाती है। पूर्वभव में किये हुए पापकर्म से अथवा भावीपाप से पापऋद्धि प्राप्त होती है। इस विषय पर दृष्टान्त सुनो
वसन्तपुर नगर में एक ब्राह्मण, एक क्षत्रिय, एक वणिक् और एक सुनार ये चार मित्र थे। वे द्रव्योपार्जन के निमित्त एक साथ परदेश चले। रात्रि को एक उद्यान में ठहरे। वहां उन्होंने वृक्ष की शाखा में लटकता हुआ एक सुवर्णपुरुष देखा। उन चारों में से एक ने कहा- 'यह द्रव्य है।' सुवर्णपुरुष ने कहा 'द्रव्य है, परंतु अनर्थ करनेवाला है' यह