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श्राद्धविधि प्रकरणम्
इच्छानुसार मिल भी सकते हैं। कहा है कि – इच्छानुसार फल प्राप्त करनेवाले पुरुष को अपनी योग्यता के ही अनुसार इच्छा करनी चाहिए। लोक में मांगने से परिमित वस्तु तो मिल जाती है, परन्तु अपरिमित नहीं मिल सकती। इसलिए अपने भाग्यादिक के अनुसार ही इच्छा रखनी चाहिए। जो मनुष्य अपनी योग्यता की अपेक्षा अधिकाधिक इच्छा किया करता है, उसे इच्छित वस्तु का लाभ न होने से सदा दुःखी ही रहना पड़ता है। निन्यानवे लाख टंक का अधिपति होते हुए करोडपति होने के निमित्त धन श्रेष्ठी को अनेक क्लेश भोगने पड़े। ऐसे ही और भी बहुत से उदाहरण हैं। कहा है कि— आकाङ्क्षितानि जन्तूनां सम्पद्यन्ते यथा यथा । तथा तथा विशेषाप्तौ, मनो भवति दुःखितम् ॥१॥ आशादासस्तु यो जातो, दासस्त्रिभुवनस्य सः।
आशा दासीकृता येन तस्य दास्ये जगत्त्रयी ॥२॥
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मनुष्यों के मनोरथ ज्यों-ज्यों पूर्ण होते हैं, त्यों-त्यों उनका मन विशेष लाभ के लिए दुःखी होता जाता है। जो मनुष्य आशा का दास हो गया वह मानो तीनों लोक का दास हो गया और जिसने आशा को अपनी दासी बनायी उसने तीनों जगत् को अपना दास बना लिया है।
धर्म-अर्थ-काम :
गृहस्थ मनुष्य ने धर्म, अर्थ और काम इन तीनों का इस रीति से सेवन करना चाहिए कि एक दूसरे को बाधा न हो। कहा है कि-धर्म, अर्थ (द्रव्य) और काम (विषयसुख) ये तीनों लोक में पुरुषार्थ कहे जाते हैं। चतुरपुरुष अवसर देखकर तीनों का सेवन करते हैं। जंगली हाथी की तरह धर्म व अर्थ का त्याग करके जो मनुष्य क्षणिक विषयसुख में लुब्ध होता है वह आपत्ति में पड़ता है। जो मनुष्य विषयसुख में अधिक आसक्ति रखता है, उसके धन की, धर्म की व शरीर की भी हानि होती है। धर्म और काम को छोड़कर उपार्जन किया हुआ धन अन्य लोग भोगते हैं, और उपार्जन करनेवाला हाथी को मारनेवाले सिंह की तरह केवल पाप का भागीदार होता है। अर्थ और काम को त्यागकर केवल धर्म की ही सेवा करना यह तो साधु मुनिराज का धर्म है, गृहस्थ का नहीं। गृहस्थ को भी धर्म को बाधा उपजाकर अर्थ तथा काम का सेवन न करना चाहिए। कारण कि बीज भोजी (बोने के लिए रखे हुए दाने खानेवाला) किसान की तरह अधार्मिक पुरुष का अंत में कुछ कल्याण नहीं होता । सोमनीति में भी कहा है कि - जो मनुष्य परलोक के सुख में बाधा न आवे ऐसी रीति से इस लोक का सुख भोगता है, वही सुखी कहा जाता है। वैसे ही अर्थ को बाधा उपजाकर धर्म तथा काम का सेवन करनेवाले के सिरपर बहुत देना हो जाता है और काम को बाधा उपजाकर धर्म व अर्थ का सेवन करनेवाले को संसारिक सुख का लाभ नहीं होता। इस प्रकार क्षणिक विषयसुख में आसक्त, मूलभोगी (जड़ को खा जानेवाला) और कृपण इन तीनों पुरुषों के धर्म, अर्थ तथा काम को बाधा सुलभता से उत्पन्न होती है।
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