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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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कहा- 'आप कहते हैं सो सब सत्य है, किन्तु कुल परंपरा से आया हुआ नास्तिकत्व कैसे छोड़ दूं?' श्रीकेशि गणधर ने कहा । 'जैसे कुल परंपरा से आये हुए दारिद्र, रोग, दुःख आदि छोड़ दिये जाते हैं उसी तरह नास्तिकता को भी छोड़ देनी चाहिए।' यह सुन प्रदेशी राजा सुश्रावक हो गया उसकी सूर्यकान्ता नामक एक रानी थी। उसने परपुरुष में आसक्त हो एक बार पौषध के पारणे के दिन राजा को विष खिलाया। वह बात तुरंत राजा के ध्यान में आ गयी व उसने मंत्री से कही। पश्चात् मंत्री के कहने से उसने अपना मन समाधि में रखा और आराधना तथा अनशनकर वह सौधर्मदेवलोक में सूर्याभ विमान के अन्दर देवता हुआ । विषप्रयोग की बात खुल जाने से सूर्यकान्ता बहुत लज्जित हुई तथा भय से जंगल में भाग गयी और वहां सर्पदंश से मरकर नरक में पहुंची। एक समय आमलकल्पा नगरी में श्री वीरभगवान् समवसरे। तब सूर्याभ देवता बायें तथा दाहिने हाथ से एक सो आठ बालक तथा बालिकाएं प्रकट करना आदि प्रकार से भगवन् के संमुख आश्चर्यकारी नाटककर स्वर्ग में गया। तब गौतमस्वामी के पूछने पर श्री वीरभगवंत ने सूर्याभ देवता का पूर्वभव तथा देव के भव से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में सिद्धि को प्राप्त होगा इत्यादि बात कही। इसी तरह आमराजा बप्पभट्टसूरि के, कुमारपाल राजा श्री हेमचन्द्रसूरि के उपदेश से बोध को प्राप्त हुए यह प्रसिद्ध है। अब संक्षेप से थावच्चापुत्र की कथा कहते हैं—
थावच्चापुत्र :
द्वारिकानगरी में किसी सार्थवाह की थावच्चा नामक स्त्री बड़ी धनवान थी । 'थावच्चापुत्र' इस नाम से प्रतिष्ठित उसके पुत्र ने बत्तीस कन्याओं से विवाह किया था। एक समय श्रीनेमिनाथ भगवंत के उपदेश से उसे प्रतिबोध हुआ। माता के बहुत मना करने पर भी उसने दीक्षा लेने का विचार नहीं छोड़ा। तब वह दीक्षा उत्सव के निमित्त कृष्ण के पास कुछ राजचिन्ह मांगने गयी । कृष्ण ने भी थावच्चा के घर आकर उसके पुत्र को कहा कि, 'तू दीक्षा मत ले । विषयसुख का भोग कर ।' उसने उत्तर दिया कि 'भय पाये हुए मनुष्य को विषयभोग अच्छे नहीं लगते।' कृष्ण ने पूछा, 'मेरे होते हुए तुझे किसका भय है ?' उसने उत्तर दिया। 'मृत्यु का' तदनंतर स्वयं कृष्ण ने उसका दीक्षा उत्सव किया। थावच्चापुत्र ने एक सहस्र श्रेष्ठी आदि के साथ दीक्षा ली। अनुक्रम से वह चौदहपूर्वी हुआ, और सेलक राजा तथा उसके पांचसो मंत्रियों को श्रावककर सौगंधिकानगरी में आया। उस समय व्यास का पुत्र शुक नामक एक परिव्राजक अपने एक हजार शिष्यों सहित वहां था । वह त्रिदंड, मंडलु, छत्र, त्रिकाष्ठी, अंकुश, पवित्रक और केशरी नामक वस्त्र इतनी वस्तुएं हाथ में रखता था । उसके वस्त्र गेरू से रंगे हुए थे वह सांख्यशास्त्र के सिद्धान्तानुसार चलनेवाला होने से प्राणातिपातविरमणादि पांच यम (व्रत) और शौच (पवित्रता) संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान यह पांच नियम मिलकर दश प्रकार के शौचमूल परिव्राजक धर्म की तथा दानधर्म की प्ररूपणा करता था । प्रथम उसने सुदर्शन नामक नगर सेठ से