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श्राद्धविधि प्रकरणम् भूयो भूयो घटीयन्त्रं, निमज्जत् किं न पश्यसि? ॥१॥ पर-छिद्र निकालकर स्वार्थ साधने से अपनी उन्नति नहीं होती। परन्तु उलटा अपना नाश ही होता है। देखो, रहट के घड़े छिद्र से अपने में जल भर लेते हैं। इससे उनमें जल भरा हुआ रहता नहीं, बल्कि बार-बार खाली होकर उनको जल में डूबना पड़ता है। पुण्य-पाप की चतुभंगी : शंकाः न्यायवान् और धर्मी ऐसे भी कितने ही लोग निर्धनता आदि दुःख से
अतिपीड़ित दृष्टि में आते हैं। वैसे ही अन्याय से व अधर्म से चलनेवाले लोग भी ऐश्वर्य आदि होने से सुखी दिखायी देते हैं। तो न्याय व धर्म से
सुख होता है, इसे प्रमाणभूत कैसे माना जाये? समाधान : न्यायी लोगों को दुःख और अन्यायी लोगों को सुख नजर आता है, वह पूर्वभव के कर्म का फल है, इस भव में किए हुए कर्म का फल नहीं।
पुण्य-पाप के चार प्रकार हैं। श्रीधर्मघोषसूरिजी ने कहा है कि-१ पुण्यानुबंधी पुण्य, २ पापानुबंधि पुण्य, ३ पुण्यानुबंधि पाप और ४ पापानुबंधि पाप, ये चार पुण्यपाप के चार प्रकार हैं। जिन-धर्म की आराधना करनेवाले लोग भरत चक्रवर्ती की तरह संसार में कष्ट रहित निरुपम सुख पाते हैं, वह पुण्यानुबंधि पुण्य है। अज्ञान कष्ट करनेवाले जीव कोणिकराजा की तरह अतिशय ऋद्धि तथा रोग रहित काया आदि धर्मसामग्री होते हुए भी धर्मकृत्य न कर, पापकर्म में रत होते है, वह पापानुबंधि पुण्य है। जो जीव द्रमक मुनि की तरह पाप के उदय से दरिद्री और दुःखी होते हुए भी उनके मन में दया आदि होने से जिनधर्म पाते हैं, वह पुण्यानुबंधि पाप है। जो जीव कालशौकरिक की तरह पापी, क्रूर कर्म करनेवाले, अधर्मी, निर्दय, किये हुए पाप का पश्चात्ताप न करनेवाले,औरज्यों-ज्यों दुःखी होते जाय, त्यों-त्यों अधिकाधिक पापकर्म करते जाय, ऐसे हैं, वह पापानुबंधि पाप का फल है। पुण्यानुबंधिपुण्य से बाह्यऋद्धि
और अंतरंगऋद्धि भी प्राप्त होती है, इन दोनों में से एक भी ऋद्धि जिस मनुष्य ने न पायी उसके मनुष्य भव को धिक्कार है! जो जीव प्रथम शुभपरिणाम से धर्मकृत्य का आरंभ करें परन्तु पीछे से शुभपरिणाम उतर जाने से परिपूर्ण धर्म नहीं करते, वे परभव में आपदा सहित संपदा पाते हैं। इस तरह किसी जीव को पापानुबंधी पुण्य के उदय से लोक में दुःख कष्ट ज्ञात नहीं होता, तथापि उसे आगामी भव में निश्चयपूर्वक पापकर्म का फल मिलता है, इसमें संशय नहीं। कहा है कि द्रव्य संपादन करने की बहुत इच्छा से अंधा हुआ मनुष्य पापकर्म करके जो कुछ द्रव्य पाता है, वह द्रव्यआदि मांस में घुसेड़े हुए लोहे के कांटे की तरह उस मनुष्य का नाश किये बिना नहीं रहता। अतएव जिससे स्वामी द्रोह हो ऐसे दाणचोरी आदि अकार्यों का अवश्य त्याग करना चाहिए। कारण कि, उनसे इस लोक तथा परलोक में अनर्थ उत्पन्न होता है। जिससे किसीको स्वल्पमात्र भी ताप उत्पन्न होता हो, वह व्यवहार, घर, हाट बनवाना, तथा लेना या