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श्राद्धविधि प्रकरणम् प्रथम उन्हें सदुपदेश देना, यदि वे शिक्षा न मानकर बार-बार कुमार्ग में जाये, तो उनको कठोर वचन कहना तथा अन्य उपाय न हो तो डंडादि से शिक्षा करना। वैसे ही उचित वस्तु देकर उनकी सेवा करनी चाहिए, इत्यादि। ज्ञानार्जन : सुश्रावक को साधु मुनिराज के पास कुछ तो भी पढ़ना चाहिए। कहा है कि
अञ्जनस्य क्षयं दृष्ट्वा वल्मीकस्य वि (च) वर्द्धनम्। अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मसु ।।१।। सन्तोषस्त्रिषु कर्त्तव्यः,स्वदारे भाजने धने। त्रिषु चैव न कर्त्तव्यो, दाने चाध्ययने तपे ।।२।। गृहीत इव केशेषु, मृत्युना धर्ममाचरेत्। अजरामरवत्प्राज्ञो, विद्यामर्थश्च चिन्तयेत् ।।३।। जह जह सुयमवगाहइ, अइसयरसपसरसंजुअमपुव्वं। तह तह पल्हाइ मुणी, नवनवसंवेगसद्धाए ॥४॥ जो इह पढइ अपुव्वं, स लहइ तित्थंकरतमन्नभवे।
जो पुण पाढेइ परं, सम्मसुअंतस्स किं भणिमो? ।।५।। विवेकी पुरुष को काजल का क्षय और वामेल (सर्प का वाल्मीक बील) की वृद्धि देखकर (सूर्योदय को देखकर) दान देना और पढ़ना इत्यादि शुभकृत्यों से अपना दिन सफल करना चाहिए। अपनी स्त्री, भोजन और धन इन तीनों वस्तुओं में संतोष रखना चाहिए। अर्थात् इन तीनों का विशेष लोभ न रखना, परन्तु दान, पढ़ना और तपस्या इन तीन वस्तुओं में संतोष न रखना अर्थात् इनकी नित्य वृद्धि करनी चाहिए। मानों मृत्यु ने अपने मस्तक के केश पकड़े हों, ऐसा सोचकर धर्मकृत्य शीघ्र से करना चाहिए, और काया को अजरामर समझ विद्या तथा धन का उपार्जन करना। साधु मुनिराज जैसे-जैसे अधिक रुचि से नये-नये श्रुत (शास्त्र) में प्रवेश करते हैं, वैसे-वैसे अपने संवेगीपन पर नयी-नयी श्रद्धा उत्पन्न होने से उनको बड़ा ही हर्ष होता है। जो जीव इस मनुष्यभव में प्रतिदिन नया-नया पढ़ता है, वह परभव में तीर्थंकरत्व पद पाता है। दूसरे को जो पढ़ाए, उसका ज्ञान श्रेष्ठ फल देता है यह कहने की तो आवश्यकता ही क्या रही? थोड़ी बुद्धि होने पर भी जो पाठ करने का नित्य उद्यम करे, तो माषतुषादिक की तरह उसी भव में केवलज्ञानादिक का लाभ होता है ऐसा जानना। राजादि का कार्य :
ऊपर कहे अनुसार धमक्रिया कर लेने के अनन्तर राजा आदि हो तो अपने राजमंदिर को जाये। मंत्री आदि हो तो न्याय-सभा में जाये, और वणिक् आदि हो तो अपनी दूकान पर अथवा जो कार्य करता हो उस कार्य के लिए जाये। इस प्रकार अपने अपने उचित स्थान को जाकर धर्मको विरोध न आये। उस रीति से द्रव्य संपादन करने