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श्राद्धविधि प्रकरणम् वृद्ध पुरुषों की सम्मति से चलनेवाला राजा सत्पुरुषों को मान्य होता है। कारण कि, दुष्टलोग कदाचित् उसे कुमार्ग में अग्रेसर करें, तो भी वह नहीं जाता। स्वामी ने भी सेवक के गुणानुसार उसका आदर सत्कार करना चाहिए। कहा है कि
निर्विशेषं यदा राजा, समं भृत्येषु वर्त्तते।
तत्रोद्यमसमर्थानामुत्साहः परिहीयते ।।१।। जब राजा अच्छे व अयोग्य सब सेवकों को एक ही पंक्ति में गिने तो उद्यमी सेवकों का उत्साह टूट जाता है।
सेवक ने भी अपने में भक्ति, चतुरता आदि अवश्य रखना ही चाहिए। कहा है कि
अप्राज्ञेन च कातरेण च गुणः स्यात्सानुरागेण कः?, प्रज्ञाविक्रमशालिनोऽपि हि भवेत् किं भक्तिहीनात्फलम्?। प्रज्ञाविक्रमभक्तयः समुदिता येषां गुणा भूतले, ते भृत्या नृपतेः कलत्रमितरे सम्पत्सु चापत्सु च ।।१।।
सेवक स्वामिभक्त हो तो भी यदि वह बुद्धिहीन व कायर हो तो उससे स्वामी को क्या लाभ? और जिसमें भक्ति नहीं है ऐसे बुद्धि और पराक्रमवाले से भी क्या लाभ है? अतएव जिसमें बुद्धि, वीरता और प्रीति ये तीन गुण हो, वही राजा के संपत्काल तथा विपत्काल में उपयोगी होने योग्य है, और जिसमें ये गुण न हो, वह सेवक स्त्री समान है। कदाचित् राजा प्रसन्न हो जाय तो सेवकों को मात्र मान देता है, परन्तु सेवक तो उस मान के बदले में अवसर आने पर अपने प्राण तक देकर राजा का उपकार करते हैं। सेवक ने राजादि की सेवा बड़ी चतुराई से करनी चाहिए। कहा है कि सेवक ने सर्प, व्याघ्र, गज व सिंह ऐसे कर जन्तुओं को भी उपाय से वश किये हुए देखकर मन में विचारना कि, बुद्धिशाली व चतुरपुरुषों के लिए 'राजा को वश करना' कौनसी बड़ी बात है? राजादि को वश करने की रीति नीतिशास्त्र आदि ग्रन्थों में इस प्रकार कही है-चतुरसेवक को स्वामी की बाजू में बैठना, उसके मुख तरफ दृष्टि रखना, हाथ जोड़ना, और स्वामी के स्वभावानुसार सर्व कार्य करना। सेवक को सभा में स्वामी के बहुत समीप नहीं बैठना तथा बहुत दूर नहीं बैठना, स्वामी के बराबर अथवा उससे ऊंचे आसन पर न बैठना, स्वामी के सन्मुख व पीछे भी न बैठना, कारण कि, बहुत समीप बैठने से स्वामी को ग्लानि होती है तथा बहुत दूर बैठे तो बुद्धिहीन कहलाता है, आगे बैठे तो अन्य किसीको बुरा लगे और पीछे बैठे तो स्वामी की दृष्टि न पड़े, अतएव कथनानुसार बैठना चाहिए।
जिस समय थका हुआ, क्षुधा अथवा तृषा से पीड़ित, क्रोधित, किसी काम में लगा हुआ, सोने के विचार में तथा अन्य किसीकी विनती सुनने में लगा हुआ हो उस समय सेवक स्वामी को न बुलाये। सेवक को राजा के ही समान राजमाता, पटरानी, युवराज, मुख्य मन्त्री, राजगुरु व द्वारपाल इतने मनुष्यों के साथ भी बर्ताव