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श्राद्धविधि प्रकरणम्
187 रुई से भी हलका है, तो इसे पवन क्यों नहीं उड़ा ले जाता? उसका कारण यह है कि, पवन के मन में यह भय रहता है कि, मैं इसे ले जाऊं तो यह मुझसे भी कुछ मांगेगा? रोगी, लंबे काल का प्रवासी, नित्य दूसरे का अन्न भक्षण करनेवाला और दूसरे के घर सोनेवाला, इतने मनुष्यों का जीवन मृत्यु के समान है, इतना ही नहीं, परन्तु मर जाना यह तो इनको पूर्ण विश्रांति है, भिक्षा मांगकर निर्वाह करनेवाला मनुष्य निष्फिक्र, बहुभक्षी, आलसी व अतिनिद्रा लेनेवाला होने से जगत् में बिलकुल निष्काम होता है। ऐसा सुनते हैं कि किसी कापालिक के भिक्षा मांगने के पात्र में एक तेली के बैल ने मुंह डाला। तब कापालिक ने चिल्लाकर कहा कि, 'भिक्षा तो मुझे और भी बहुत मिल जायेगी, परन्तु इस बैल ने भिक्षा के पात्र में मुख डाला, इससे कहीं इसमें भिक्षाचर के आलस, बहुनिद्रा आदि गुण आ जायेंगे तो यह तुम्हारे लिये निष्काम हो जायेगा, इसका मुझे बहुत खेद है।
श्री हरिभद्रसूरि ने पांचवें अष्टक में तीन प्रकार की भिक्षा कही है। यथा तत्त्वज्ञ पुरुषों ने १ सर्वसंपत्करी, २ पौरुषघ्नी और ३ वृत्तिभिक्षा, इस प्रकार तीन प्रकार की भिक्षा कही है। (१) गुरु की आज्ञा में रहनेवाले, धर्मध्यान आदि शुभ-ध्यान करनेवाले
और यावज्जीव सर्व आरंभ से निवृत्ति पाये हुए साधुओं की भिक्षा सर्वसंपत्करी भिक्षा कहलाती है। (२) जो पुरुष पंच महाव्रत अंगीकार करके यतिधर्म को विरोध आये ऐसी रीति से चले, उसे गृहस्थ की तरह सावध आरंभ करनेवाले साधु की भिक्षा पौरुषघ्नी कहलाती है। कारण कि, धर्म की लघुता उत्पन्न करनेवाला वह मूर्ख साधु, शरीर से पुष्ट होते हए दीन होभिक्षा मांगकर उदर पोषण करता है, इससे उसका केवल पुरुषार्थ नष्ट होता है। (३) दरिद्री, अंधा, पंगु (लंगड़ा) तथा दूसरा भी जिनसे कोई धन्धा नहीं हो सकता, ऐसे लोग जो अपनी आजीविका के निमित्त भिक्षा मांगते हैं उसे वृत्तिभिक्षा कहते हैं। वृत्तिभिक्षा में अधिक दोष नहीं, कारण कि, उसके मांगनेवाले दरिद्रीआदि लोग धर्म में लघुता नहीं उत्पन्न करते। मन में दया लाकर लोग उनको भिक्षा देते हैं। इसलिए विशेषकर धर्मी श्रावक ऐसे गृहस्थ को भिक्षा नहीं मांगनी चाहिए।
दूसरा कारण यह है कि, भिक्षा मांगनेवाला गृहस्थ चाहे कितना ही श्रेष्ठ धर्मानुष्ठान करे, तो भी दुर्जन की मित्रता के समान उससे लोक में अवज्ञा, निन्दा आदि ही होती है। और जो जीव धर्म की निन्दा करानेवाला होता है, उसे सम्यक्त्व प्रासि आदि होना कठिन है। औघनियुक्ति में साधु को लक्ष्यकर कहा है कि
छक्कायदयावंतोवि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं।
आहारे नीहारे, दुगुछिए पिंडगहणे अ॥१।। षड्जीवनिकाय ऊपर दया रखनेवाला संयमी साधु भी, आहार निहार करते, तथा गोचरी में अन्न ग्रहण करते समय धर्म की निन्दा हो ऐसी क्रिया करे, तो उसे बोधि दुर्लभता प्राप्त होती है। भिक्षा मांगने से किसी को लक्ष्मी व सुख आदि की प्राप्ति नहीं होती। कहा है कि