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श्राद्धविधि प्रकरणम्
हुआ।
गुरुवन्दन भी तीन प्रकार का है। भाष्य में कहा है कि — गुरुवन्दन तीन प्रकार का है। एक फेट्टावन्दन, दूसरा थोभवन्दन और तीसरा द्वादशावर्त्त वन्दन । अकेला सिर नमाए, अथवा दोनों हाथ जोडना फेट्टावन्दन है, दो खमासमणा दे वह दूसरा थोभवन्दन तथा बारह आवर्त्त, पच्चीस आवश्यकादि विधि सहित दो खमासमणा दे वह तीसरा द्वादशावर्त्त वन्दन है। जिसमें प्रथम फेट्टावन्दन सर्वश्रमण संघ ने परस्पर करना। दूसरा थोभवन्दन गच्छ में रहे हुए श्रेष्ठ मुनिराज को अथवा कारण से लिंगमात्रधारी समकिती को भी करना । तीसरा द्वादशावर्त्तवन्दन तो आचार्य, उपाध्याय आदि पदधारक मुनिराज को ही करना । जिस पुरुष ने प्रतिक्रमण नहीं किया उसे भी गुरु को विधि से वन्दना करनी। भाष्य में कहा है कि - प्रथम इरियावही प्रतिक्रमण कर 'कुसुमिण दुसुमिण' टालने के लिए चार लोगस्स का अथवा सो उच्छ्वास का काउस्सग्ग करे, कुस्वप्नादि का अनुभव हुआ हो तो एक सो आठ उच्छ्वास का काउस्सग्ग करे पश्चात् आदेश लेकर चैत्यवंदन करे, पश्चात् आदेश मांगकर मुहपत्ति पडिलेहे, फिर दो वन्दनाकर, राइअं आलोवे, पुनः दो वन्दना दे अब्धिंतर राइअं खमावे, फिर दो बार वन्दना देकर पच्चक्खाण करे, तदनंतर चार खमासमणां देकर आचार्यादिक को थोभवन्दन करे। बाद में सज्झाय संदिसाहुं? और सज्झाय करूं? इन दो खमासमण से दो आदेश लेकर सज्झाय करे। यह प्रातःकाल की वंदनविधि है।
प्रथम इरियावही प्रतिक्रमणकर आदेश ले चैत्यवन्दन करे, फिर क्रमशः मुहपत्ति पडिलेहे, दो बार वन्दना दे, दिवसचरिम पच्चक्खाण करे, दो वन्दना देकर देवसिअ आलोवे । दो वंदना देकर देवसिअं खमावे, चार खमासमणा देकर आचार्यादिक को वन्दनाकर आदेश ले देवसिप्रायच्छित विसोहण के निमित्त चार लोगस्स का कायोत्सर्ग करे। पश्चात् सज्झाय संदिसाहु ? और सज्झाय करूं? इस रीति से आदेश मांगकर दो खमासमण देकर सज्झाय करे। यह संध्या समय की वंदन विधि है।
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गुरु किसी काम में व्यग्र होने से जो द्वादशावर्त्त वन्दना करने का योग न हो तो थोभवन्दन से ही गुरु को वन्दना करना । तथा वन्दना करके गुरु के पास पच्चक्खाण करना । कहा है कि जो स्वयं प्रथम पच्चक्खाण किया हो वही अथवा उससे अधिक गुरु साक्षी से ग्रहण करना कारण कि, धर्म के साक्षी गुरु हैं। धर्मकार्य गुरु साक्षी से करने में इतने लाभ हैं कि, एक तो 'गुरुसक्खिओ उ धम्मो' (गुरु साक्षी से धर्म होता है ) जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का पालन होता है, दूसरा गुरु के वचन से शुभ परिणाम उत्पन्न होने से अधिक क्षयोपशम होता है, तीसरा पूर्व धारा हो उससे भी अधिक पच्चक्खाण लिया जाता है। ये तीन लाभ हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति में कहा है कि
संतंमिवि परिणामे गुरुमूलपवज्जणंमि एस गुणो ।
दढया आणाकरणं, कम्मखओवसमवुड्डी अ ॥१॥
प्रथम से ही पच्चक्खाण आदि लेने के परिणाम हो तो भी गुरु के पास जाने में
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