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श्राद्धविधि प्रकरणम्
89 भी स्वाद में बुरी लगे, वे सर्व वस्तुएं अनाहार हैं। यथा-कायिकी, निम्ब आदि की छाल, पंचमूलादिक, आमला, हरड़ा, बहेड़ा इत्यादिक फल ये सब अनाहार हैं। निशीथचूर्णि में तो ऐसा कहा है कि नीम आदि वृक्षों की छाल उनके निम्बोली आदि फल, उन्हीं का मूल इत्यादि सर्व अनाहार हैं। पच्चक्खाण के स्थान :
अब पच्चक्खाण के उच्चारण में पांच स्थान हैं, उनका वर्णन करते हैं। प्रथम स्थान में नवकारसी, पोरसी आदि तेरह काल पच्चक्खाण का उच्चारण किया जाता है। कालपच्चक्खाण यह प्रायः सर्व चौविहार (चतुर्विध आहार त्यागरूप) होता है। दूसरे स्थान में विगई,नीवी और आंबिल इनका पाठ आता है। विगई का पच्चक्खाण का विगई का नियम रखनेवाले और न रखनेवाले इन सबको भी होता है,कारण कि श्रावक मात्र को प्रायः चार अभक्ष्य विगई का त्याग होता ही है। तीसरे स्थान में एकाशणा, बियासणा और एकलठाणे का पाठ आता है, इसमें दुविहार, तिविहार तथा चौविहार आते हैं। चौथे स्थान में 'पाणस्स लेवेण' इत्यादि अचित्त पानी के छः आगार का पाठ आता है। पांचवें स्थान में पूर्व में ग्रहण किये हुए सचित्त द्रव्य इत्यादि चौदह नियम में संक्षेप करने रूप देशावकाशिक व्रतों का प्रातः सायं पाठ आता है। पच्चक्खाण में तिविहार, चौविहार का नियम :
उपवास, आंबिल और नीवी ये तीनों पच्चक्खाण प्रायः तिविहार अथवा चौविहार होते हैं; परन्तु अपवाद से तो नीवी पोरिसी, इत्यादिक पच्चक्खाण दुविहार भी होते हैं। कहा है कि
साहूणं रयणीए, नवकारसहिअंघउब्विहाहारं। भवचरिमं उववासो, अंबिल तिह चउव्विहाहारं ॥१॥ सेसा पच्चक्खाणा, दुहतिहचउहावि हुंति आहारे। इअ पच्चक्खाणेसु, आहारविगप्पणा नेआ ।।२।। साधुओं को रात्रि में और प्रातः को नमस्कार सहित चौविहार ही होता है, और भवचरिम, उपवास तथा आंबिल ये तीनों पच्चक्खाण तिविहार तथा चौविहार होते हैं। शेष पच्चक्खाण दुविहार,तिविहार तथा चौविहार भी होते हैं। इस प्रकार पच्चक्खाण में आहार के भेद जानों।
नीवी, आंबिल इत्यादिक में कौनसी वस्तु ग्राह्य है, अथवा कौनसी अग्राह्य है? इस बात का निर्णय अपनी अपनी सामाचारीके ऊपरसे जानना। अनाभोग,सहसात्कार, इत्यादिक आगार का पच्चक्खाण भाष्यादिक में कहा हुआ प्रकट स्वरूप सिद्धांत के अनुसार भली प्रकार मन में रखना, ऐसा न करे तो पच्चक्खाण शुद्ध होने का संभव नहीं। पवित्र होने की विधि : __मूलगाथा के उतरार्द्ध में आये हुए 'पडिक्कमिअ' इस पद की इस प्रकार विस्तृत