________________
120
श्राद्धविधि प्रकरणम् देवपरिवार युक्त स्नात्रादि करता है। और उसके अनन्तर क्रमशः दूसरे इन्द्र करते हैं। शेषा (चढ़ाई हुई पुष्पमाला) की तरह स्नात्र जल सिर पर छींटे तो 'उसमें कोई दोष लगेगा' ऐसी कल्पना नहीं करना। हेमचन्द्र कृत वीरचरित्र में कहा है कि सुर, असुर, मनुष्य और नागकुमार इन्होंने उस स्नात्र-जल को बारम्बार वंदन किया, और अपने सर्वाङ्ग पर छींटा, श्री पद्मचरित्र में भी उन्नीसवें उद्देश में आषाढ शुदि अष्टमी से लेकर दशरथ राजा ने कराये हुए अट्ठाई महोत्सव के चैत्य-स्नात्रोत्सव के अधिकार में कहा है कि-दशरथ राजा ने वह शान्तिकारक न्हवण जल अपनी स्त्रियों की तरफ भेजा। तरुण दासियों ने शीघ्र जाकर दूसरी रानियों के सिर पर उसे (न्हवण-जल) छींटा, परन्तु बड़ी रानी को पहुंचाने का जल कंचुकी (अन्तःपुर रक्षक) के हाथ में आया, वृद्धावस्था होने के कारण उसे पहुंचने में विलम्ब हुआ, तब बड़ी रानी को शोक तथा कोप हुआ। पश्चात् कंचुकी ने आकर क्रोधित रानी पर उस न्हवण-जल का अभिषेक किया, तब उसका चित्त और शरीर शीतल हुए तथा कंचुकी पर हृदय प्रसन्न हुआ।
बृहच्छांतिस्तव में भी कहा है कि स्नात्रं-जल मस्तक को लगाना, सुनते हैं कि-श्री नेमिनाथ भगवान के वचन से कृष्णजी ने नागेन्द्र की आराधना करके पाताल में से श्री पार्श्वनाथजी की प्रतिमा शंखेश्वरपुर में लाकर उसके न्हवण-जल से अपना सैन्य जो कि जरासंघकी जरा से पीड़ित हुआ था उसे जरा से मुक्त किया। आगम में भी कहा है कि-जिनेश्वर भगवान की देशना के स्थान पर राजा आदि लोगों ने उछाला हुआ. अन्न का बलि भूमि पर पड़ने के पूर्व ही देवता उसका आधा भाग लेते हैं। आधे का आधा भाग राजा लेता है और शेष भाग अन्य लोग लेते हैं। उसका एक दानामात्र भी सिरपर रखने से रोग नष्ट होता है तथा छः मास तक अन्य कोई रोग नहीं होता। पश्चात् सद्गुरु ने स्थापन किया हुआ, भारी महोत्सव से लाया हुआ, और दुकूलादि श्रेष्ठ वस्त्र से सुशोभित ऐसा महाध्वज तीन प्रदक्षिणा तथा बलिदान आदि विधि करके चढ़ाना। वहां सर्व लोगों को शक्ति के अनुसार प्रभावना देना। पश्चात् भगवान् के संमुख मंगलदीप सहित आरती का उद्योत करना। उसके पास अग्निपात्र (सिगड़ी) रखना। उसमें नमक व जल डालना।
'उवणेउ मंगलं वो, जिणाण मुहरालिजालसंवलिया।
तित्थपवत्तणसमए, तिअसविमुक्का कुसुमवुट्ठी ।।१।। यह मंत्र कहकर प्रथम पुष्पवृष्टि करना। पश्चात्'ठयह पडिग्गपसरं, पयाहिणं मुणिवई करेऊणं।
पडइ स लोणत्तेण लज्जिअं व लोणं हुअवहमि ।।२।। १. तीर्थंकर की तीर्थप्रवृत्ति के अवसर पर शब्द करते भ्रमरों के समुदाय से युक्त ऐसी देवता की
करी हुई पुष्पवृष्टि तुम्हारा मंगल करे। २. देखो, लवण मानो अपने लवणपन से लज्जित हुआ और कोई उपाय न रहने से भगवान् को
तीन प्रदक्षिणा देकर अग्नि में पड़ता है।