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श्राद्धविधि प्रकरणम्
153 अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, शंख, सीप, जोंक, कीड़ी, कीड़ा, पतंग, मक्खी, भ्रमर, मत्स्य, कछुआ, गधा, भैंसा, बैल, ऊंट, खच्चर, घोड़ा, हाथी इत्यादि प्रत्येक जीवयोनियों में एक-एक हजार बार उत्पन्न होकर सर्व मिल लाखों भव संसार में भ्रमण करते पूरे किये। प्रायः सर्व भवों में शस्त्राघात आदि महाव्यथा सहन करके उसकी मृत्यु हुई पश्चात् बहुत सा पाप क्षीण हो गया, तब वसन्तपुर नगर में करोड़ाधिपति वसुदत्त श्रेष्ठी की स्त्री वसुमति के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसके गर्भ में रहते ही वसुदत्त का सर्व द्रव्य नष्ट हो गया। पुत्र के जन्म होते ही उसी दिन वसुदत्त की मृत्यु हो गयी और जब उसे पांचवा वर्ष प्रारम्भ हुआ तब वसुमति भी देवगत हुई। लोगों ने उसका 'निष्पुण्यक' नाम रखा। कंगाल की तरह जैसे-तैसे निर्वाह करके वह बढ़ने लगा। ___ एक दिन उसका मामा स्नेह से उसे अपने घर ले गया। दैवयोग से उसी दिन रात्रि को मामा के घर को भी चोरों ने लूट लिया। इस प्रकार जिस किसीके घर वह एक दिन भी रहा, उन सब के यहां चोर, डाकू, अग्नि आदि का उपद्रव हुआ, कहीं-कहीं तो घरधनी ही मर गया। पश्चात् 'यह कपोतपोत (कबूतर का बच्चा) है? कि जलती हुई भेड़ है? अथवा मूर्तिमान उत्पात है?' इस प्रकार लोग उसकी निन्दा करने लगे। जिससे उद्वेग पाकर वह निष्पुण्यक नामक सागरश्रेष्ठी का जीव देशदेशान्तर में भटकता हुआ ताम्रलिप्ति नगरी में गया। वहां विनयंधर श्रेष्ठी के यहां नौकर रहा। उसी दिन विनयंधर श्रेष्ठी के घर में आग लगी। जिससे उसने कुत्ते की तरह अपने घर से निकाल दिया। तदनंतर किंकर्तव्यविमूढ़ हो वह पूर्वभव में उपार्जन किये हुए कर्मों की निन्दा करने लगा,कहा है कि
कम्मं कुणंति सवसा, तस्सुदयंमि अ परव्वसा हुंति।
रुक्खं दुरुहइ सवसो, निवडेइ परव्वसो तत्तो ॥१॥ सर्व जीव स्वाधीनता से कर्म करते हैं परन्तु जब उन्हें भोगने का अवसर आता है तो पराधीन होकर भोगते हैं। जैसे मनुष्य स्वतंत्रता पूर्वक वृक्ष पर चढ़ जाता है, परन्तु गिरने का समय आये तब परतंत्र होकर नीचे गिरता है। तदनन्तर निष्पुण्यक ने सोचा कि 'योग्य स्थान का लाभ न होने से भाग्योदय को बाधा आती है।' समुद्रतट पर गया, और धनावह श्रेष्ठी की दासता स्वीकार की, उसी दिन नौका पर चढ़ा व कुशलपूर्वक श्रेष्ठी के साथ द्वीपान्तर में गया। वह मन में विचार करने लगा कि 'मेरा भाग्य उदय हुआ! कारण कि मेरे अन्दर बैठते हुए भी नौका न डूबी, अथवा इस समय मेरा दुर्दैव अपना काम भूल गया। ऐसा न हो कि लौटते समये उसे याद आये।' कदाचित् निष्पुण्यक के मन में आयी हुई कल्पना को सत्य करने के लिये ही उसके दुर्दैव ने लकड़ी का प्रहार करके मिट्टी के घड़े की तरह लौटते समय उस नौका के टुकड़े टुकड़े कर दिये। दैवयोग से एक पटिया निष्पुण्यक के हाथ में आ गया, उसकी सहायता से वह समुद्रतट के एक ग्राम में पहुंचा और वहां के ठाकुर के आश्रय में रहने लगा।
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