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श्राद्धविधि प्रकरणम्
151 रक्षा करे तो उस साधु को कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं लगता, अथवा सर्वसावध विरतिरूप प्रतिज्ञा को भी बाधा नहीं आती। ऐसा ही चैत्यद्रव्य की रक्षा में भी जानो। आगम में भी ऐसी ही व्यवस्था है। शंकाकार कहता है कि-'जिनमंदिर संबंधी क्षेत्र, सुवर्ण, ग्राम, गाय इत्यादि वस्तु के संबंध में आनेवाले साधु की त्रिकरण शुद्धि किस प्रकार होती है?' उत्तर में सिद्धान्ती कहते हैं कि-'यहां दो बातें हैं, जो साधु मंदिर संबंधी वस्तु स्वयं मांगे, तो उसकी त्रिकरण शुद्धि नहीं होती, परन्तु जो कोई यह (चैत्यसंबंधी) वस्तु हरण करे, और साधु उस विषय की उपेक्षा करे, तो उसकी त्रिकरण शुद्धि नहीं होती; इतना ही नहीं बल्कि चैत्यद्रव्य हरणोपेक्षा से अभक्ति भी होती है। इसलिए किसीको भी हरण करते हुए अवश्य मना करना चाहिए। कारण कि, सर्व संघ को सब यत्न से चैत्यद्रव्य के रक्षण में और भक्षण की उपेक्षा न हो ऐसा प्रयत्न करना ही चाहिए, यह देवद्रव्य रक्षण करने का कार्य चारित्र से युक्त (मुनि) और चारित्र से रहित (श्रावक गृहस्थ) ऐसे सभीजैनियों का है।
- वैसे ही स्वयं चैत्यद्रव्य खानेवाला, दूसरे खानेवाले की उपेक्षा करनेवाला और उधार देकर अथवा अन्य रीति से देवद्रव्य का नाश करनेवाला अथवा कौनसा काम थोड़े द्रव्य में हो सकता है व किस काम में अधिक द्रव्य लगता है इस बात का खयाल न होने से मतिमंदत्ता से चैत्यद्रव्य का नाश करनेवाला अथवा विपरीत हिसाब लिखनेवाला श्रावक पापकर्म से लिप्त हो जाता है।
आयाणं जो भंजइ, पडिवन्नधणं न देइ देवस्स। नस्संतं समुविक्खइ, सोऽवि हु परिभमइ संसारे ।।१।। जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदसणगुणाणं।
भक्खंतो जिणदव्वं, अणंतसंसारिओ होइ ॥२॥ जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं। रक्खंतो जिणदव्वं, परित्तसंसारिओ होइ ।।३।। जिणपवयणवुड्डिकर, पभावगं नाणदसणगुणाणं।
वुडंतो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥४॥ देवद्रव्य की आवक में बाधा आये ऐसा कोई भी काम करे, अथवा स्वयं देना स्वीकार किया हुआ देवद्रव्य न दे, तथा देवद्रव्य भक्षण करनेवाले की उपेक्षा करे, तो भी वह संसार में भ्रमण करता है। केवलिभाषित धर्मकी वृद्धि करनेवाले व ज्ञानदर्शन के गुण की प्रभावना करनेवाले ऐसे जो चैत्यद्रव्य का भक्षण करे, तो अनंतसंसारी होता है। देवद्रव्य होने से ही मंदिर की व्यवस्था तथा हमेशा पूजा, सत्कार होना संभव है। वहीं मुनिराज का भी योग मिल आता है। उनका व्याख्यान सुनने से केवलिभाषित धर्म की वृद्धि और ज्ञान-दर्शन के गुणों की प्रभावना होती है। केवलिभाषित धर्म की वृद्धि करनेवाले और ज्ञानदर्शन के गुणों की प्रभावना करनेवाले देवद्रव्य की जो रक्षा