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श्राद्धविधि प्रकरणम् चंदन, केशर, पुष्प प्रमुख सामग्री देकर दूसरे मनुष्य के द्वारा भगवान की अंगपूजा करवाना; और अग्रपूजा तथा भावपूजा स्वयं करना। शरीर अपवित्र हो तो पूजा के बदले आशातना होना संभव है, इसलिए स्वयं अंगपूजा करने का निषेध किया है। कहा है कि
निःशूकत्वादशौचोऽपि, देवपूजां तनोति यः।
पुष्पैर्भूपतितैर्यश्च, भवतः श्वपचाविमौ ॥१।।
जो अपवित्र पुरुष संसार में पड़ने का भय न रखते हुए देवपूजा करते हैं, और जो पुरुष भूमि पर पड़े हुए फूल से पूजा करते हैं, वे दोनों चांडाल होते हैं, यथा- . अपवित्रता से पूजन में चांडाल का दृष्टांत : ___ कामरूप नगर में एक चांडाल को पुत्र हुआ। जन्म से ही उसके पूर्वभव के बैरी किसी व्यंतरदेवता ने उसे हरणकर जंगल में डाल दिया। इतने में कामरूपनगर का राजा जो कि शिकार खेलने गया था उसने वन में उस बालक को देखा। राजा पुत्र हीन था इससे उसने उसे ले लिया। पालन किया तथा उसका पुण्यसार नाम रखा। जब पुण्यसार तरुणावस्था को प्राप्त हुआ तब राजा ने उसका राज्याभिषेककर स्वयं दीक्षा ले ली। कुछ काल के अनन्तर उक्त कामरूप के राजा केवली होकर वहां आये। पुण्यसार उनको वंदना करने गया। सर्व नगरवासी मनुष्य भी वन्दना करने आये तथा पुण्यसार की माता वह चांडालिनी भी वहां आयी। पुण्यसार राजा को देख उस चांडालिनी के स्तन में से दूध झरने लगा। तब राजा (पुण्यसार)ने केवली भगवान् से इसका कारण पूछा। केवली ने कहा-'हे राजन्! यह तेरी माता है, तू वन में पड़ा हुआ मेरे हाथ लगा।' पुण्यसार ने पुनः प्रश्न किया, 'हे भगवान्! मैं किस कर्मवश चांडाल हुआ?' केवली ने उत्तर दिया, 'पूर्वभव में तू व्यापारी था। एक समय भगवान् की पूजा करते 'भूमिपर पड़ा हुआ फूल नहीं चढ़ाना चाहिए।' ऐसा जानते हुए भी तूने भूमि पर पड़ा हुआ फूल अवज्ञा से भगवान् के ऊपर चढ़ाया। उससे तू चांडाल हुआ। कहा है कि
उच्छि8 फलकुसुमं, नेविज्जं वा जिणस्स जो देइ।
सो नीअगोअकम्मं, बन्धइ पायन्नजम्मंमि ।।१।। पुरुष ऐंठा (उच्छिष्ठ) फल, फूल अथवा नैवेद्य भगवान् को अर्पण करे, वह प्रायः परभव में नीचगोत्र कर्म बांधता है। तेरी माता ने पूर्वभव में रजस्वला होते हुए देवपूजा की, उस कर्म से यह चांडालिनी हुई। केवली के ऐसे वचन सुन वैराग्य से पुण्यसार राजा ने दीक्षा ली। इसलिए भूमि पर पड़ा हुआ फूल सुगन्धित हो तो भी वह भगवान् को नहीं चढ़ाना चाहिए। तथा किंचित् मात्र भी अपवित्रता हो तो भी भगवान् को नहीं छूना। विशेषकर स्त्रियों को रजस्वला अवस्था में प्रतिमा को बिलकुल स्पर्शन करना चाहिए। कारण कि, भारी आशातनादि दोष लगता है।