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श्राद्धविधि प्रकरणम्
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उत्तरदिशा में मुख करके उज्ज्वल वस्त्र पहनना, और पूर्व अथवा उत्तरदिशा में मुख करके भगवान् की पूजा करना। घर में प्रवेश करते शल्य वर्जित बायें भाग में डेढ़ हाथ ऊंची भूमि पर घर देरासर करना । जो नीचे भूमि से लगता हुआ देरासर करे (मंदिर बनाये) तो उसका वंश क्रमशः नीचे जाता है अर्थात् धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। पूजा करनेवाला मनुष्य पूर्व अथवा उत्तर दिशा की तरफ मुख करके बैठे, परंतु दक्षिणदिशा में तथा चारों उपदिशाओं में मुख करके न बैठे। जो पश्चिमदिशा में मुख करके भगवान् की पूजा करे तो मनुष्य की चौथी पीढ़ी में उसका क्षय होता है; और दक्षिणदिशा में मुख करे तो उस मनुष्य की संतति वृद्धि नहीं पाती। अग्निकोण तरफ मुख करके पूजा करे, उस मनुष्य की दिन प्रतिदिन धनहानि होती है। वायव्य कोण तरफ मुख करे, तो संतति नहीं होती। नैऋत्य कोण तरफ मुख करे तो कुलक्षय होता है और ईशान कोण तरफ मुख करे तो बिलकुल संतति नहीं होती है। प्रतिमा के दो पग, दो घुटने, दो हाथ, दो कंधे और मस्तक इन नौ अंगों की अनुक्रम से पूजा करना । श्रीचंदन बिना किसी समय भी पूजा न करना, कपाल, कंठ, हृदय, कंधे और पेट (उदर) इतनी जगह तिलक करना । नव तिलक से हमेशां पूजा करना । ज्ञानीपुरुषों ने प्रभातकाल में प्रथम वासक्षेपपूजा करना, मध्याह्न समय में फूल से पूजा करना और संध्या समय में धूपदीप से पूजा करना ऐसा कहा है। धूप भगवान् की बायीं ओर रहकर रखना । अग्रपूजा में रखते हैं वे सब वस्तुएं भगवान् के संमुख रखना। भगवान् की दाहिनी ओर दीप रखना । ध्यान तथा चैत्यवंदन भगवान् की दाहिनी ओर करना। हाथ से गिरा हुआ, वृक्षपर से भूमि पर पड़ा हुआ, किसी तरह पांव को लगा हुआ, सिरपर उठाकर लाया हुआ, खराब वस्त्र में रखा हुआ, नाभि से नीचे पहिने हुए वस्त्र आदि में रखा हुआ, दुष्ट मनुष्यों का स्पर्श किया हुआ बहुत लोगों द्वारा उठाने से खराब किया हुआ और कीड़ियों का काटा हुआ ऐसा फल, फूल, तथा पत्र भक्ति से भगवान् की प्रीति के धारण करने के निमित्त नहीं चढ़ाना। एक फूल के दो भाग नहीं करना । कली भी नहीं तोड़ना । चंपा और कमल इनके दो भाग करने से बहुत दोष लगता है। गंध, धूप, दीप, अक्षत, मालाएं, बलि, नैवेद्य, जल और श्रेष्ठ फल इतनी वस्तुओं से श्री जिन भगवान की पूजा करना। शांति के निमित्त लेना हो तो पुष्प फल आदि श्वेत लेना, लाभ के हेतु पीला लेना, शत्रु को जीतने के लिए श्यामवर्ण, मंगलिक के लिए लाल और सिद्धि के हेतु पंचवर्ण लेना । पंचामृत का स्नात्र आदि करना, और शांति के निमित्त घी गुड़ सहित दीपक करना। शांति तथा पुष्टि के निमित्त अग्नि में नमक डालना उत्तम है। खंडित, जुड़ा हुआ, फटा हुआ, लाल तथा भयंकर ऐसा वस्त्र पहनकर किया हुआ दान, पूजा, तपस्या, होम आवश्यक आदि अनुष्ठान सर्व निष्फल हैं। पुरुष पद्मासन से बैठ, नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखकर, मौनकर, वस्त्र से मुखकोश बांधकर जिनेश्वर भगवान की पूजा करें। १ स्नात्र २ विलेपन, ३ आभूषण, ४ फूल, ५ वास, ६ धूप, ७ दीप, ८ फल, ९ अक्षत, १० पत्र, ११ सुपारी, १२ नैवेद्य, १३ जल, १४ वस्त्र, १५ चामर, १६ छत्र, १७