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श्राद्धविधि प्रकरणम् भी अचित्त मानने का व्यवहार है। वृक्ष पर से तत्काल लिया हुआ गोंद, लाख, छाल आदि तथा तत्काल निकाला हुआ निम्बू, नीम, नारियल, आम, सांटा आदि का रस वैसे ही तत्काल निकाला हुआ तिलादिक का तैल, तत्काल तोड़ा हुआ व निर्बीज किया हुआ नारियल, सिंघाडा,सुपारी आदि निर्बीज किये हुए पके फल, विशेष कूटकर कण रहित किया हुआ जीरा, अजमान आदि दो घड़ी तक मिश्र और पश्चात् अचित्त ऐसा व्यवहार है।
दूसरी भी जो वस्तु प्रबल अग्नि के संयोग बिना अचित्त की हुई हो वह, दो घड़ी तक मिश्र और पश्चात् अचित्त हो जाती है, ऐसा व्यवहार है। वैसे ही कच्चे फल, कच्चे धान्य, बहुत बारीक पिसा हुआ नमक इत्यादि वस्तुएं कच्चे पानी की तरह अग्नि आदि प्रबलशस्त्र के बिना अचित्त नहीं होती। श्री भगवती सूत्र के उन्नीसवें शतक के तीसरे उद्देशा में कहा है कि वज्रमयी शिला पर अल्प पृथ्वीकाय रखकर उसको वज्रमय पत्थर से ही [चक्रवर्ती की दासी द्वारा जो इक्कीस बार चूर्ण किया जाय तो उस पृथ्वीकाय में कितने ही ऐसे जीव रहते हैं कि जिनको पत्थर का स्पर्श भी नहीं होता। हरड़े, खारिक, किसमिस, द्राक्ष, खजूर, मिर्च, पीपल, जायफल, बादाम, वावडिंग, अखरोट, निमजां, अंजीर, चिलगोंजा, पिस्ता, कबाबचीनी, स्फटिक के समान सैंधव आदि सज्जीक्षार, बिड़ नमक आदि कृत्रिम (बनावटी) खार, कुम्हार आदि लोगों ने तैयार की हुई मिट्टी आदि, इलायची, लौंग, जावित्री, नागरमोथा, कोकन आदि देश में पके हुए केले, उकाले हुए सिंघाडे, सुपारी आदि वस्तु सो योजन ऊपर से आयी हुई हो तो, अचित्त मानने का व्यवहार है। श्रीकल्प में कहा है कि,लवण आदि वस्तु सो योजन जाने के उपरान्त (उत्पत्ति स्थान में मिलता था वह) आहार न मिलने से, एक पात्र से दूसरे पात्र में डालने से अथवा एक कोठे में से दूसरे कोठे में डालने से, पवन से, अग्नि से, तथा धुंए से अचित्त हो जाती है (इसी बात को विस्तार से कहते हैं) लवण आदिक वस्तु अपने उत्पत्ति स्थान से परदेश जाते हुए प्रतिदिन प्रथम थोड़ी, पश्चात् उससे अधिक, तत्पश्चात् उससे भी अधिक, इस प्रकार क्रमशः अचित्त होते हुए सो योजन पर पहुंचती है तब तो वे सर्वथा अचित्त हो जाती हैं। शंकाः शस्त्र का सम्बन्ध न हो और केवल सो योजन पर जाने से ही लवणादिक,
३. वस्तु अचित्त किस प्रकार हो जाती है? । समाधान : जो वस्तु जिस देश में उत्पन्न होती है उसको वह देश, वहां का जल वायु आदि अनुकूल रहते हैं। उसी वस्तु को वहां से परदेश ले जाने से उसको पूर्व में उस देश में जलवायु आदि का जो पौष्टिक आहार मिलता था, उसका विच्छेद होने से वह वस्तु अचित्त हो जाती है। एक पात्र से दूसरे पात्र में अथवा एक कोठे में से दूसरे कोठे में इस तरह बारम्बार फिराने से लवणादि वस्तु अचित्त हो जाती है। वैसे ही पवन से, अग्नि से तथा रसोई आदि के स्थान में धुआं लगने से भी लवणादि वस्तु अचित्त हो जाती है। 'लवणादि' इस पद में 'आदि' शब्द ग्रहण किया है इससे हरताल, मनशिल, पीपल,