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श्राद्धविधि प्रकरणम् मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी अचित्त है, ऐसा मानते हैं तो भी मर्यादा भंग के प्रसंग से उसका सेवन नहीं करते। सुनते हैं कि काई तथा त्रस जीव से रहित
और स्वभाव से अचित्त हुए पानी से भरा हुआ भारी द्रह पास होने पर भी भगवान् श्री वर्द्धमान स्वामी ने अनवस्था-दोष टालने के निमित्त और श्रुतज्ञान प्रमाणभूत है ऐसा दिखाने के लिए तृषा से अत्यन्त पीड़ित तथा उसीसे प्राणांत संकट में पड़े हुए अपने शिष्यों को उसका पानी पीने की आज्ञा नहीं दी। वैसे ही क्षुधा से पीड़ित शिष्यों को अचित्त तिल से भरी हुई गाड़ी तथा वैसे ही बड़ी नीति (दीर्घशंका) की संज्ञा से पीड़ित शिष्यों को अचित्त ऐसी स्थंडिल की भूमि उपयोग में लेने की भी आज्ञा नहीं दी। इसका खुलासा इस प्रकार है कि, श्रुतज्ञानी साधु बाह्य शस्त्र का सम्बन्ध हुए बिना जलादिक वस्तु को अचित्त नहीं मानते। इसलिए बाह्य सम्बन्ध होने से जिसके वर्ण, गंध, रस आदि बदल गये हों ऐसा हीजलादिक ग्रहण करना। - हरडे,.... इत्यादि वस्तु अचेतन हो तो भी अविनिष्ट (नाश न पायी) योनि के रक्षण निमित्त तथा क्रूरता आदिटालने के हेतु दांत आदि से नहीं तोड़ना। श्री ओघनियुक्ति में पंचहत्तरवी गाथा की वृत्ति में कहा है किशंका : अचित्त वनस्पतिकाय की यतना रखने का प्रयोजन क्या है? समाधान : वनस्पतिकाय अचित्त हो, तो भी गिलोय कंकटुक मूंग, इत्यादि कितनी ही वनस्पति की योनि नष्ट नहीं होती। जैसे गिलोय सूखी हो तो भी जल छीटने से अपने स्वरूपको पाती दिखायी देती है। ऐसे कंकटुक मूंग भी जानो। इसलिए योनि का रक्षण करने के हेतु अचित्त वनस्पतिकाय की भी यतना रखनी यह न्याय की बात है।
इस प्रकार सचित्त अचित्त वस्तुका स्वरूप जानकर सचित्तादिक सर्वभोग्य वस्तु नाम लेकर निश्चयकर, तथा अन्य भी सर्व बात ध्यान में रखकर सातवां व्रत जैसे आनन्द कामदेव आदि ने अंगीकार किया वैसे ही श्रावक को अंगीकार करना चाहिए। इस प्रकार सांतवां व्रत लेने की शक्ति न हो तो साधारणतः एक, दो इत्यादि सचित्त वस्तु, दस बारह आदि द्रव्य, एक दो इत्यादि विगई आदि का नियम सदैव करना, परन्तु प्रतिदिन नाम न लेते साधारणतः अभिग्रह में एक सचित्त वस्तु रखे और नित्य पृथक्पृथक् एक सचित्त वस्तु ले तो फेरफार से एक-एक वस्तु लेते सर्व सचित्त वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है, ऐसा करने से विशेष विरति नहीं होती, इसलिए नाम देकर सचित्त वस्तु का नियम किया हो तो नियम में रखी हुई से अन्य सर्व सचित्त वस्तु से यावज्जीव विरति होती है, यह अधिक फल स्पष्ट दीखता है। कहा है कि
पुप्फफलाणं च रसं, सुराइ मंसाण महिलिआणं च।
जाणंता जे विरया, ते दुक्करकारए वंदे ॥१॥ पुष्प, फल, मद्यादिक, मांस और स्त्री का, रस जानते हुए भी जो उससे विरति पाये, उन दुष्करकारक भव्यजीवों को वन्दना करता हूं।
सब सचित्त वस्तुओं में नागरवेल के पान छोड़ना बहुत कठिन है, कारण कि,