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श्राद्धविधि प्रकरणम् अविरति से निगोद आदि (अत्यन्त सूक्ष्म कीटाणु) जीव की तरह बहुत कर्मबंधन, तथा दूसरे महान् दोष होते हैं,कहा है कि
भाविना भविना येन, स्वल्पापि विरतिः कृता।
स्पृहयन्ति सुरास्तस्मै, स्वयं तां कर्तुमक्षमाः ।।१।।
जो व्यक्ति भाव से विरति की (देशविरति को अथवा सर्वविरति को) अंगीकार करे उसकी विरति करने में असमर्थ ऐसे देवता बहुत प्रशंसा करते हैं। एकेन्द्रिय जीव कवलाहार बिलकुल नहीं करते, तो भी उनको उपवास का फल नहीं मिलता, यह अविरति का फल है। एकेन्द्रिय जीव, मन-वचन-काया से सावध व्यापार नहीं करते, तो भी उनको उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक उसी काया में रहना पड़ता है, इसका कारण अविरति ही है। जो परभव में विरति की होती तो तिर्यंच जीव इस भव में चाबुक, अंकुश, परोणी इत्यादिक का प्रहार तथा वध, बंधन, मारण आदि सेंकडों दुःख न पाते। सद्गुरु का उपदेश आदि सर्वसामग्री होते हुए भी अविरति कर्मका उदय हो तो देवता की तरह विरति स्वीकार करने का परिणाम नहीं होता। इसीलिए श्रेणिक राजा क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हुए तथा वीर भगवान का वचन सुनना इत्यादि उत्कृष्ट योग होते हुए भी मात्र कौवे के मांस तक की भी बाधा न ले सका। अविरतिको विरति सेही जीत सकते हैं और विरति अभ्यास से साध्य होती है, अभ्यास से ही सर्व क्रियाओं में निपुणता उत्पन्न होती है। लिखना, पढ़ना, गिनना,गाना, नाचना इत्यादिसर्वकलाकौशल में यह बात मनुष्यों को अनुभव सिद्ध है।
अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात्सकलाः कलाः। अभ्यासाद् ध्यानमौनादि, किमभ्यासस्य दुष्करम्? ॥२॥ अभ्यास से सर्व क्रियाएं सिद्ध होती हैं, अभ्यास से ही सर्वकलाएं आती हैं और अभ्यास से ही ध्यान, मौन, इत्यादि गुणों की प्राप्ति होती है। अतएव ऐसी कौनसी बात है जो अभ्यास से न हो सके? जो निरन्तर विरति के परिणाम रखने का अभ्यास करे,तो परभव में भी उस परिणाम की अनुवृत्ति होती है। कहा है कि
जीव इस भव में जिस किसी गुण अथवा दोष का अभ्यास करता है उस अभ्यास के योग से ही वह वस्तु परभव में पाता है। इसलिए जैसी इच्छा हो उसके अनुसार भी विवेकी पुरुष को बारह व्रत सम्बन्धी नियम ग्रहण करना चाहिए।
इस स्थान पर श्रावक तथा श्राविकाओं ने अपनी इच्छा से कितना प्रमाण रखना, इसकी सविस्तार व्याख्या करना आवश्यक है। जिससे कि अच्छी प्रकार समझकर परिणाम रखकर नियम स्वीकार करे तो उसका भंग न हो। विचार करके उतना ही नियम लेना चाहिए जितने का पालन हो सके। सर्व नियमों में 'सहसानाभोगादि चार आगार हैं, वे ध्यान में रखना। इसलिए अनुपयोग से अथवा सहसागारादिक से नियम
१. १ अन्नत्थणाभोगेणं, २ सहसागारेणं, ३ महत्तरागारेणं, ४ सव्वसमाहिवत्तियागारेणं