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श्राद्धविधि प्रकरणम् _ 'दक्ष पुरुषों की सहायता से दुस्साध्य कार्य भी सुसाध्य हो जाता है।' यह विचारकर मंत्री बहुत से योग्य व्यक्तियों को साथ लेकर वहां गया। इन लोगों को अपने स्वागत के लिए आये हुए समझकर शुकराज अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा विमान से उतरकर आम्रवृक्ष के नीचे आया। विवेकी मंत्री भी वहां गया तथा प्रणामकर कहने लगा कि, 'हे विद्याधरेन्द्र! आपकी शक्ति अपार है। कारण कि, आपने हमारे स्वामी की दोनों स्त्रियां तथा सब विद्याएं हरण कर ली हैं। अब शीघ्र प्रसन्न हो आप वेग से अपने स्थान को पधारिये।'
मंत्री की यह बात सुनकर शुकराज आश्चर्य करने लगा कि, 'इसे चित्तभ्रम हुआ, मस्तिष्क फिर गया, त्रिदोष हुआ कि भूत लगा है? फिर बोला कि, 'तूने यह क्या कहा? मैं शकराज हं!' मंत्री ने कहा, 'हे विद्याधर! क्या शुकराज की तरह तू मुझे भी ठगना चाहता है? मृगध्वज राजा के वंश रूपी आम्रवृक्षों में शुक के समान हमारा स्वामी शुकराज तो राजमहल में है, तू तो कोई वेषधारी विद्याधर है, अधिक क्या कहूं? जैसे चूहा बिलाड़ के दर्शनमात्र से डरता है, वैसे ही हमारा स्वामी शुकराज तेरे दर्शन मात्र से कांपता है तथा बहुत डरता है, इसलिए तू शीघ्र यहां से चला जा।'
खिन्न चित्त होकर शुकराज विचार करने लगा कि, 'निश्चय किसी कपटी ने छल भेद से मेरा स्वरूप करके मेरा राज्य ले लिया है, कहा है कि
राज्यं भोज्यं च शय्या च, वरवेश्म वराङ्गना।
धनं चैतानि शून्यत्वेऽधिष्ठीयन्ते ध्रुवं परैः ।।८३५।।। १ राज्य, २ भक्षण करने योग्य वस्तु, ३ शय्या, ४ रमणीय घर, ५ रूपवती स्त्री तथा ६ धन इन छः वस्तुओं को मालिक की अनुपस्थिति में अन्य लोग हरण कर लेते हैं। अब क्या करना चाहिए? जो मैं इसे मारकर अपना राज्य लूं तो संसार में मेरा भारी अपवाद होगा कि, 'कोई महापापी ठग ने मगरमच्छ की तरह बलपूर्वक राजा मृगध्वज के पुत्र शुकराज का वधकर उसका राज्य हस्तगत कर लिया है।' पश्चात् उसने तथा उसकी दोनों स्त्रियों ने अपना परिचय देने हेतु बहुत सी निशानियां बतायी, पर किसीने विश्वास न किया, धिक्कार है ऐसे कपटमय कृत्य को! तत्पश्चात् अपना अपमान हुआ समझकर वह सच्चा शुकराज विमान में बैठकर आकाशमार्ग में गया, मंत्री ने हर्षित होकर वेषधारी शुकराज के पास आकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया, तब वह पाखंडी स्त्री-लंपट भी प्रसन्न हुआ। वास्तविक शुकराज तोते की तरह शीघ्रता से आकाश में जाने लगा, तब उसकी दोनों स्त्रियों ने अपने पीहर (पिता के घर) चलने को कहा, परन्तु शर्म के कारण वह वहां नहीं गया। अपने पद से भ्रष्ट हुए पुरुष को परिचित तथा नातेदारों के घर नहीं जाना चाहिए, तथा श्वसुर-गृह को तो कदापि नहीं जाना चाहिए, कारण कि वहां तो आडम्बर से ही जाना योग्य है। कहा है कि
सभायां व्यवहारे च, वैरिषु श्वशुरौकसि। आडम्बराणि पूज्यन्ते, स्त्रीषु राजकुलेषु च ।।१।। ८४३।।