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श्राद्धविधि प्रकरणम् गुणधारक वायुसार नामक प्रसिद्ध पुत्र हुआ। पूर्वकाल में हुए कृष्ण के पुत्र शांब और प्रद्युम्न की तरह दोनों ने 'यथा पिता तथा पुत्रः' इस कहावत को अपने अनुपम गुणों से सत्य कर दिखाया। शुकराज ने अनुक्रम से प्रसन्नतापूर्वक बड़े पुत्र पद्माकरकुमार को राज्य व दूसरे पुत्र वायुसार को युवराज पद पर स्थापित किया और कर्मशत्रु को जीतने के निमित्त स्त्रियों के साथ दीक्षा लेकर स्थिरता से शत्रुजय तीर्थ को चला गया। पर्वत पर शुक्लध्यान से चढ़ते ही उसे शीघ्र केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। महात्मा पुरुषों की लब्धि अद्भुत होती है। पश्चात् चिरकाल तक पृथ्वी पर विहार करता और भव्यजीवों के मोहान्धकार को दूर करता हुआ राजर्षि शुकराज दोनों स्त्रियों के साथ मोक्ष में गया।
हे भव्यप्राणियों! प्रथम भद्रकपन इत्यादि गुणों से क्रमशः उत्तम समकित की प्राप्ति, पश्चात उसका निर्वाह इत्यादिशुकराज को मिला हुआ अपूर्व फल श्रवणकर तुम भी उन गुणों को उपार्जन करने का आदर पूर्वक उद्यम करो।
॥ इति भद्कपनादिक ऊपर शुकराज की कथा || .
जन्मसन्तानसम्पादि विवाहादि विधायिनः । स्वाः परेऽस्य सकृत्प्राणहारिणो न परे परे ।।८४॥
- आत्मानुशासन हे आत्मन्!
तूने जिसको अपना माना है, वे ही मेरे स्वजन हैं ऐसा तूने माना है। विचार कर ले कि "जो तेरे पास विवाहादि पापकार्य करवाकर अशुभ कर्म उपार्जन करवाते हैं। एक बार प्राण हरणकारक शत्रु नहीं भी है क्योंकि वह तो कर्मकर्ज से मुक्त कर देता है। पर जो बार-बार उपरोक्त कार्य करवाकर भवो भव कर्मबंध की श्रृंखला में जकड़ देने से उनके समान कोई वैरी-शत्रु नहीं है।
१. कथा लेखन काल की अपेक्षा से 'पूरा' पूर्वकाल शब्द का प्रयोग हुआ है।