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श्राद्धविधि प्रकरणम् है; तथा मेरे समान अभागिनी से भी अभागिनी को पति तक छोड़कर परलोक चला गया, उसको बार-बार धिक्कार है।'
दुष्टमति गंगा ने ऐसे आर्तध्यान से वर्षाऋतु में लौह पर चढ़े हुए कीट के समान पुनः कर्म संचय किया। अन्त में मृत्यु को पाकर दोनों देवलोक में ज्योतिषी-देवता की देवियां हुई तथा वहां से च्युत होकर गंगा तेरी माता व गौरी तेरी पुत्री हुई। पूर्वभव में दासी को दुर्वचन कहा था इससे तेरी पुत्री को सर्प-दंश हुआ और तेरी माता को इसीसे भिल्ल की पल्ली में रहना पड़ा। तथा गणिका की प्रशंसा करी इससे गणिकापन भोगना पड़ा। पूर्व-कर्म से असंभव बात भी संभव हो जाती है। बड़े खेद की बात है कि जो कर्म केवल मन अथवा वचन से संचित होते हैं, उनकी अगर आलोचना न करे तो काया से इस तरह भोगना पडता है। तूने पूर्वभव के अभ्यास से इन दोनों पर कामवासना रक्खी। जैसा अभ्यास होता है वैसा ही संस्कार परभव में प्रकट होता है। धर्म-संस्कार तो अधिकाधिक अभ्यास होने पर भी प्रकट नहीं होते, परन्तु कच्चे-पक्के सामान्य संस्कार तो परभव में आगे-आगे दौड़ते हैं। ___ केवली भगवान् के ये वचन सुनकर श्रीदत्त को संसार पर वैराग्य तथा खेद उत्पन्न हुआ। उसने पुनः पूछा कि, 'हे महाराज! संसार से मुक्त होने का कोई उपाय बतलाइये। जिसमें ऐसी विडंबना होती है उस श्मशान समान संसार में कौन जीवित व्यक्ति सुख पा सकता है?'
मुनिराज ने कहा-'संसाररूपी गहन-वन से मुक्त होने का चारित्र ही केवल उत्तम साधन है, इसलिए तू शीघ्र चारित्र ग्रहण करने का प्रयत्न कर।' श्रीदत्त ने कहा'बहुत अच्छा, पर इस कन्या को कोई योग्य स्थल देखकर देना है, कारण कि इसकी चिन्ता मुझे संसार सागर में तैरते गले में बंधे हए पत्थर के समान है।' मनिराज बोले कि, 'हे श्रीदत्त! तू व्यर्थ पुत्री की चिन्ता न कर, कारण कि तेरी पुत्री के साथ तेरा मित्र शंखदत्त विवाह करेगा।' श्रीदत्त ने आंखों में आंसू भरकर गद्गद् स्वर से कहा कि, 'हे महाराज! मुझ जैसे क्रूर व पापी को वह मित्र कहां से मिले?' मुनिराज ने कहा, 'खेद न कर और दुःखी भी मत हो। तेरा मित्र मानो बुलाया ही हो उस प्रकार अभी यहां आयेगा।' - श्रीदत्त आश्चर्य से हंसकर विचार करता ही था कि इतने में दूर से शंखदत्त को आता हुआ देखा। उधर शंखदत्त श्रीदत्त को देखकर अत्यन्त क्रोधित हो यम की तरह क्रूर हो उसे मारने दौड़ा। श्रीदत्त एक तो क्षुभित था तथा राजा आदि के पास होने से क्षण मात्र स्थिर रहा। इतने में मुनिराज बोले कि, 'हे शंखदत्त! तू क्रोध को चित्त से निकाल दे। कारण कि क्रोध अग्नि की तरह इतना तीव्र होता है कि अपने रहने के स्थान तक (देह) को जलाकर भस्म कर देता है, क्रोध चांडाल है, अतएव इसका स्पर्श नहीं करना ही उचित है, यदि स्पर्श हो जाय तो अनेक बार गंगा स्नान करने पर भी शुद्धि नहीं होती है। जैसे भयंकर विषधर सर्प गारुड़ी मंत्र सुनते ही शान्त हो जाता है, वैसे ही मुनिराज