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श्राद्धविधि प्रकरणं
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है; परन्तु आश्चर्य की बात है कि वह राजा मित्रपुत्र शुकराज पर बहुत प्रीति रखने लगा तथा हर्षपूर्वक अपनी कन्या भी उसे दे दी। इसी रीति से ही प्रीति बढ़ती है' राजा ने चंपापुरी में वरकन्या के विवाह का भारी उत्सव किया। उस समय वर का बहुत ही सत्कार किया। राजा के विशेष आग्रह से शुकराज कुछ समय तक वहीं रहा । 'रसोई जिस प्रकार नमक से ही स्वादिष्ट व उत्तम होती है उसी प्रकार इस लोक के सर्व कार्य पूर्वपुण्य ही से सफल होते हैं, इसलिए विवेकी पुरुषों को सांसारिक कार्य करते हुए योग्यतानुसार धर्मकार्य भी अवश्य करते रहना चाहिए। यह विचारकर एक दिन शुकराज कुमार राजा की आज्ञा लेकर तथा पद्मावती को पूछकर विद्याधर के साथ वैताढ्य पर्वत पर चैत्यवन्दन करने को गया । चित्र विचित्र जिन-मंदिर से सुशोभित उस पर्वत की शोभा देखता और मार्ग चलता हुआ गगनवल्लभ नगर में आया। वायुवेग ने अपने माता-पिता को अपने ऊपर किये हुए उपकार का वर्णन किया तो उन्होंने हर्ष से अपनी कन्या वायुवेगा शुकराज को दी । विवाहोत्सव हो जाने के बाद शुकतीर्थ वन्दन के लिए बहुत उत्सुक हुआ, परन्तु आंतरिक प्रीति संस्कार करते हुए वायुवेग के माता-पिता ने उसे कुछ दिन वहीं रहने पर विवश किया। भाग्यशाली हो अथवा अभागी हो परन्तु उसे तीर्थयात्रा के समान धर्मकृत्य करने में विघ्न तो आते ही हैं, परन्तु उसमें अन्तर इतना रहता ही है कि भाग्यशाली को स्थान-स्थान पर सत्कार मिलता है और अभागे को पद-पद पर तिरस्कार मिलता है। एक समय कोई पर्व आया उसके उद्देश्य से वायुवेग तथा शुकराज दोनों व्यक्ति विमान में बैठकर तीर्थ वन्दन के लिए रवाना हुए। पीछे से किसी स्त्री ने आवाज दिया कि 'शुकराज, शुकराज !' जिसे सुन चकित हो दोनों जने खड़े रहे और उसे पूछा कि, 'तुम कौन हो ?' उस स्त्री ने उत्तर दिया कि, 'मैं चक्रेश्वरी नामक देवी हूं। सद्गुरु की आज्ञा की तरह गोमुख यक्ष की आज्ञा से मैं काश्मीर देशान्तर्गत विमलाचल तीर्थ पर रक्षा करने के लिए जा रही थी। मार्ग में ज्यों ही मैं क्षितिप्रतिष्ठितनगर पर आयी तो मैंने उच्च स्वर से रुदन करते हुए एक स्त्री का आर्त्त शब्द सुना। उसके दुःख से दुःखित होकर मैं नीचे उतरी और उसे पूछा कि 'हे कमलाक्षि! तुझे क्या दुःख है ?' उसने उत्तर दिया कि 'मेरे शुकराज नामक पुत्र को गांगलि ऋषि अपने आश्रम में ले गये हैं। बहुत समय व्यतीत हुआ पर अभी तक उसका कुशल समाचार नहीं मिला। इससे मुझे महा दुःख हो रहा है।' यह सुन मैंने कहा- 'हे भद्रे ! तू रुदन न कर । मैं वहीं जाती हूं, वापस लौटते समय तक तेरे पुत्र का कुशल समाचार लेती आऊंगी। इस प्रकार उसका समाधानकर मैं विमलाचल तीर्थ पर गयी, वहां तुझे न देखा तो अवधिज्ञान से ज्ञात करके मैं यहां आयी हूं। हे चतुर ! शीघ्र तेरी आतुर माता को अपने दर्शन देकर शान्तवना दे। जैसे सेवक अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार वर्ताव करते हैं उसी प्रकार विशेषकर सुपुत्र अपनी माता की, सुशिष्य अपने गुरु की, तथा श्रेष्ठ कुलवधु अपनी सास की इच्छानुसार वर्ताव करते हैं। माता-पिता अपने सुख के लिए ही पुत्र की इच्छा करते हैं। जो पुत्र दुःख का कारण