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खण्ड - ३, गाथा - ५
सपक्ष-विपक्षयोर्हेतुभावाऽभावयो: सर्वत्र निश्चयाऽयोगात् । न हि पार्थिवत्वादी दर्शनाऽदर्शनयोः सतोरप्यन्वय (1) निश्चयः इति कृतकत्वादावपि स न स्यात् ।
तथाहि - बहुलमदृष्टे (ष्ट ) व्यभिचारस्यापि केनचिदसति प्रतिबन्धे सर्वत्र सर्वस्य न तथाभावावगमो नियमनिबन्धनाऽभावात् । न वा सर्वदर्शनाऽव्याप्यसपक्षविपर्यं ( ? ) यो हेतोर्भावाभावौ ग्रहीतुं शक्यौ ( ? ), यतो न हेतुमन्तः सर्व एव भावाः साध्यधर्मसंसर्गितयाऽसर्वविदः प्रत्यक्षा ( : ) साध्यविविक्ता वा हेतुविकलतया, 5 अदृश्यतानुपलब्धेरभावाऽव्यभिचारित्वाऽयोगात् । उक्तं च- [श्लो० वा० अर्था० ३८]
गत्वा गत्वा च तान् देशान् यद्यर्थो नोपलभ्यते । तदान्यकारणाभावादसन्नित्यवगम्यते ।। इति। यत्र यत्र साधनधर्मस्तत्र सर्वत्र साध्यधर्मः यत्र च साध्याभावस्तत्र सर्वत्र साधनधर्मस्याप्यभाव इति अशेषपदार्थाक्षेपेण सपक्षेतरयोः हेतोः सदसत्त्वे ख्यापनीय ( ?ये) स्तः । क्वचिदेव तादात्म्य - तदुत्पत्तिलक्षणस्य
नहीं रखता । सपक्ष में हेतु का रहना और विपक्ष में नहीं रहना इन का निश्चय सर्वत्र अनुमान स्थल 10 में होना संभव नहीं । पार्थिवत्व के साथ लोहलेख्यत्व का बार बार दर्शन होता है और पार्थिवत्व न हो वहाँ लोहलेख्यत्व का बार बार दर्शन नहीं होता फिर भी लोहलेख्यत्व का पार्थिवत्व में अन्वय निश्चय नहीं होता क्योंकि वज्र में पार्थिवत्व होने पर भी लोहलेख्यत्व नहीं रहता यह बात मंजूर है, लेकिन उस का यह मतलब नहीं कि कृतकत्वादि में अनित्यत्व का अन्वय निश्चय भी न । कृतकत्व हेतु
में साध्यप्रतिबद्धता निर्विवाद है ।
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[ हेतु में साध्यप्रतिबद्धता का निश्चय कैसे ]
देखिये जिस भाव में प्रायशः अन्य का व्यभिचार नहीं देखा गया, किन्तु अन्य के साथ उस की प्रतिबद्धता प्रमाणसिद्ध नहीं है, तो यह नहीं जाना जा सकता कि सर्व क्षेत्रों में उस भाव का या तत्सदृश सजातीय सर्व भावों का अन्य के साथ अव्यभिचार होगा ही, क्योंकि अव्यभिचारनियम जानने के लिये कोई आधार वहाँ नहीं है । सभी असर्वज्ञ के दर्शन का जो अव्याप्य यानी अविषय हैं ऐसे सपक्ष और 20 विपक्ष में, हेतु का अन्वय और व्यतिरेक जानना शक्य नहीं ( इसी लिये हमने कहा है कि अनुमान के लिये सपक्षसत्त्वादि का कोई महत्त्व नहीं है ।) क्योंकि असर्वज्ञ को हेतुशाली सभी भावों का साध्यधर्म के साथ अवश्य संसर्गिता का प्रत्यक्ष भान होना शक्य नहीं । तथा जितने साध्यविकल स्थान हैं वे सब हेतु से भी रहित है ऐसा भी निर्णय असर्वज्ञ लोग प्रत्यक्ष से नहीं कर सकते। कारण, सर्व साध्यविकल स्थानों में कदाचित् हेतुवैकल्य यानी हेतु अनुपलब्धि मान ली जाय तो वह अदृश्य- अनुपलब्धि है, उस से 25 सर्वत्र हेतु-अभाव का निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि अदृश्यानुपलब्धि में अभाव की अव्यभिचारिता का नियमतः योग असिद्ध है । जैसे कि श्लोकवार्त्तिक में कुमारील विद्वान ने का है ( श्लो. वा. अर्था. ३८) [ साध्यनिश्वय का आधार सीर्फ व्याप्ति ]
'अर्थ का अभाव तभी निर्णीत हो सकता
यदि उन देशों में पुनः पुनः जाने पर भी अर्थ उपलब्ध
न हो ।'
जहाँ जहाँ साधनधर्म हो वहाँ सर्वत्र साध्यधर्म रहेगा, जहाँ साध्यधर्म का अभाव होगा वहाँ सर्वत्र
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