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खण्ड-३, गाथा-५ नामन्वय-व्यतिरेकाभ्यां लोके सुप्रसिद्धत्वात् । अन्वय-व्यतिरेकनिबन्धनो हि सर्वत्र हेतुफलभावः, तमभ्युपगच्छन् ‘हेतुभिरनाधेयत्वं(?ध्वं)सा घटादयः' इति प्रत्येतुं न क्षमः । उक्तं च- [ ]
'अभिघाताग्निसंयोग-नाशप्रत्ययसन्निधिम्।
विना संसर्गितां याति न विनाशो घटादिभिः ।। इति । न चाऽवस्तुत्वाद् विनाशस्य कार्यत्वं न सङ्गतमिति वक्तव्यम्, यतः - [ ]
5 "भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् ।
अभावः संमतस्तस्य हेतोः किं न समुद्भवः ?।। घटेन्धनपयसां समासादितविकाराणामवस्थान्तरमेव ध्वंसं मन्यन्ते । येप्यनुपजातविकाराः प्रदीपबुद्ध्यादयो ध्वंसमालम्बन्ते तेप्यव्यक्तरूपतामात्मस्वभावतां च विकारमेव ध्वंसमासादयन्ति यथा नोपलम्भव्यावृत्तिरेवानुपलम्भः परेषां किन्तु विवक्षितोपलम्भादन्यः पर्युदासवृत्त्योपलम्भ एव, तथा भावातिरेकेणाभावस्याऽसंवेद्यत्वाद् भाव 10 एव()भावः। कुछ काल स्थिर रहता है, क्योंकि नाशहेतु तब असंनिहित हैं।) 'नाश का कोई हेतु ही नहीं होता' यह कथन गलत है। अन्वय और व्यतिरेक के बल से विश्व में विनाश के हेतु अति प्रसिद्ध है। उदा० 'डंडे से घट को फोड दिया, आग से लकडी जल गयी...' इत्यादि व्यवहारों से स्पष्ट है कि विश्व में घट और लकडी आदि का नाशहेत क्रमशः डंडा ओर आग इत्यादि प्रसिद्ध है। विश्व के कोने कोने में अन्वय-व्यतिरेक 15 मूलक कारण-कार्य भाव निश्चित है। इस तथ्य को स्वीकारनेवाला कोई भी व्यक्ति ‘घटादि का ध्वंस कारण से आधेय (= प्रयुक्त) नहीं है' ऐसी बेतुकी बात मानने को तैयार नहीं। किसी विद्वान् ने कहा है – '(दंड का) अभिघात अथवा अग्निसंयोग रूप नाशनिमित्तों के सांनिध्य के विना नाश घटादि के साथ संसर्गिता अनुभव नहीं करता।' [ ] इति ।
[ विनाश में कार्यत्व की उपपत्ति ] 'विनाश अवस्तुरूप होने से उस में कार्यत्व नहीं मेल खाता' ऐसा मत कहना, क्योंकि बहुत से विद्वान् स्पष्ट कहते हैं - ‘अनुपलम्भ की तरह अन्यभाव से व्यावृत्त भाव ही 'अभाव' माना गया है, तब कारण के विना उस का उद्भव कैसे होगा ?' (अनुपलम्भ का अर्थ उपलम्भाभाव नहीं होता किन्तु अन्य (भूतलादि) अर्थ के उपलम्भ को अनुपलम्भ कहा जाता है वैसे अभाव के लिये भी समझ लेना।) इस श्लोकार्थ के आधार पर घट के इन्धन के या दुग्ध के विकारप्राप्त रूपान्तर को ही (खप्पर, 25 भस्म, दध्यादि को ही) ध्वंसात्मक मानते हैं। तथा, प्रदीप, बुद्धि आदि के बारे में जहाँ भस्मादिवत् विकार अनुपलम्भ है वहाँ भी उन की जो व्यक्त भावात्मकस्वभावता है वह बदल कर अव्यक्तभावापन्नता जो कि एक विकाररूप है उसी को ध्वंस मानते हैं। (प्रदीप आदि पहले व्यक्तरूप थे, नाशहेतु का संनिधान होने पर वे अव्यक्त यानी तिरोहित हो जाते हैं - यही ध्वंसात्मक विकार है।) जैसे बौद्धों के मत में अनुपलम्भ उपलम्भव्यावृत्तिस्वरूप नहीं किन्तु पर्युदास नञ् (तद्भिन्नसूचक नकार) का अवलम्ब 30 कर के विवक्षित (वस्तु के) उपलम्भ से भिन्न (अन्य वस्तु के) उपलम्भ को ही 'अनुपलम्भ' माना 7. हेतुबिन्दुटीकायामृद्धृतोऽयं श्लोकः ।। •. हेतुबिन्दुटीका-स्याद्वादरत्नाकर-रत्नाकरावतारिकायां समृद्धृतोऽयं श्लोकः ।
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