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खण्ड-३, गाथा-५
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तान्नीलविकल्पात् तद्व्यापारानुसारिणो यथा नीलानुभवव्यवस्था सौगतैरभ्युपगता तथा पूर्वदृष्टं पश्यामि' इत्युल्लेखवतोनुसन्धानविकल्पात्(?द)त्रुट्यद्रूपशब्दाद्यवभासिनस्तत्त्वात्त ती(?द)धिगतरूपत्वं किमिति न व्यवस्थाप्यते ? 'पूर्वदृष्टमेव पश्यामि' इत्युल्लेखवानुपजायमानोऽप्यनुसन्धानप्रत्ययो न प्रत्यभिज्ञाध्यक्षतामनुभवति क्षणिकाभिव्यक्तिषु शब्दमात्रास्वक्षसंसर्गाभावतस्तदोपजायमानत्वात् । चिरन्तरकालाभिव्यक्तीनां तु घटादिव्यक्तीनां अनुसन्धानविकल्पप्रत्यधिगतमेव स्थिरत्वम् इन्द्रियसंसर्गानुसरणतस्तस्य प्रादुर्भावात्।
न चेन्द्रिय()विषयत्वात् स्थैर्यस्य तदनुसारिणो विकल्पस्य वाऽध्यक्षस्य न पौर्वापर्ये वृत्तिरिति वक्तुं युक्तम्, नीलादावप्यस्य समानत्वात्। यथा चाक्षव्यापारानन्तरं नीलाद्यवभासस्यानुभूतेस्तस्य नीलादिविषयत्वम् तथा नयनव्यापारानन्तरमत्रुट्यद्रूपप्रतिभासानुभूतेस्तस्य तद्विषयत्वमपि व्यवस्थापनीयम्। न च पूर्वदर्शनानुस्मरणमन्तरेण दृश्यमानस्यार्थस्य पूर्वदृष्टताधिगतिर्न सम्भवति पूर्वदर्शनस्मरण एव वर्तमानदर्शनग्राह्यस्य शब्दनित्यतावादी मीमांसक कहता है कि जिन शब्दमात्राओं की अभिव्यक्ति हालाँकि क्षणिक ही होती है, 10 फिर भी उन में आलोचनप्रतीति यानी निर्विकल्प ज्ञान के द्वारा स्थिरता का भान गर्भितरूप से होता ही है। अत एव उसके बाद 'यह वही (ककार) है' ऐसा अनुसन्धान विकल्प उत्पन्न होता हुआ दिखाई देता है। ‘यह वही(ककार) है' इस अनुसन्धान प्रतीति का उदाहरण लेकर यदि कोई 'पूर्वदृष्ट को देखता हूँ' ऐसी भिन्न भिन्न शब्दमात्राओं की अनुसन्धानात्मक प्रतीति (यानी सर्वथा भिन्न घट-पट शब्दों की प्रतीति) में भी प्रत्यभिज्ञारूप प्रत्यक्ष का आपादन करें तो वह उचित नहीं है - क्योंकि तब पूर्वकालीन शब्दमात्राओं 15 के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष उपस्थित नहीं है। फिर भी, दीर्घकाल के अन्तराल से अभिव्यक्त होनेवाले घटादि की स्थिरता को भी ग्राहक अनुसन्धान प्रतीति घटादि की स्थिरता को भी ग्रहण कर लेती है - इस में बाध नहीं है क्योंकि उसी घटादि के साथ उत्तरकाल में भी इन्द्रिय संसर्ग होने के कारण ही उस का (अनु० प्रतीति का) उदय होता है। [प्रत्यक्ष की स्थैर्यविषयता का समर्थन ]
20 आशंका :- स्थैर्य (= चिरकालसम्बन्ध) अतीन्द्रिय होने से, स्थैर्य ग्रहण प्रवण विकल्प अथवा प्रत्यक्ष (= अविकल्प) की उस के पूर्वापरभावग्रहण में शक्ति नहीं हो सकती।
उत्तर :- नीलादि भी क्षणमात्रवृत्ति होने से क्षण की अतीन्द्रियता के कारण उस का प्रत्यक्ष हो नहीं सकेगा - आप को भी यह समान दोष है। फिर भी जैसे इन्द्रियसंचार के बाद नीलादि का अवभास अनुभवसिद्ध है अतः प्रत्यक्ष में नीलादिविषयता माननी पडती है, उसी तरह नेत्रसंचार के बाद अस्खलितरूप 25 से स्थैर्य के प्रतिभास का अनुभव होता है अतः स्थैर्यविषयता भी प्रत्यक्ष में मान लेना ही चाहिये ।
आशंका :- ‘पूर्वदृष्टं स्मरामि' इस ढंग से, पूर्वदृष्ट वस्तु के पश्चात् स्मरण के विना, वर्तमान में दृश्यमान वस्तु की पूर्वदृष्टता का अवगम सम्भव नहीं। कारण, पूर्वदर्शन का स्मरण होने पर ही वर्त्तमानप्रत्यक्षगृहीत पदार्थ में 'पहले यह देखा है' ऐसा पूर्वदृष्ट का अध्यवसाय उत्पन्न होता है। अब वस्तुस्थिति ऐसी है कि वर्तमानकालीन दर्शन में पूर्वदर्शन तो भासित नहीं होता। तब उस का प्रतिभास न होने पर, 30 वर्त्तमानदर्शन गृहीत पदार्थ में पूर्वदृष्टता को जान लेने में प्रत्यक्ष कैसे समर्थ हो पायेगा ? पूर्वदृष्टता के अवगम के विना इन्द्रियजन्य प्रतीति की पूर्वापरभाव के ग्रहण में प्रवृत्ति कैसे होगी ?
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