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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ वि(?)शेषिकास्तु मन्यन्ते- भवत्वनपेक्षितभावान्तरसंसर्गः प्रच्युतिमात्रमेव प्रध्वंसाभावः, तथापि तत्र हेतुमत्ता न विरोधमनुभवति। तथाहि- (हेतु० टीका )
सं(सन्) बोधगोचरप्राप्तस्तद्भावे नोपलभ्यते।
नस्या(श्य)न् भावः कथं तस्य न नाश: कार्यतामियात्।। कारणाधीनः पदार्थेषु प्रध्वंस इति तद्धेतुसन्निधानात् प्रागनासादितविनाशसङ्गतयो भावा इत्यनुमानादक्षणिकत्वसिद्धेर्न क्षणक्षयिता तेषामभ्युपगन्तुं युक्तेति।
[ ऋजुसूत्रनयावलम्बिसौगतीयः क्षणभंगसिद्धावुत्तरपक्षः ] अत्र प्रतिविधीयते- यदुक्तम् (४-५) 'नाध्यक्षतः क्षणिकतावगमः' इति, तत्र यथा अध्यक्षमेव क्षणविशरारुतां भावानामवगमयति तथा प्रतिपादितं प्राक् 'वेदान्तवादिमतनिराकरणं कुर्वद्भिः। यदपि 10 'नानुमानतोऽपि तत्सिद्धि(ः) सामान्यविशेषलक्षणाऽयोगात् लिङ्गस्य' (४-८) इति । तदसंगतमेव। यतः
'सपक्षे सत्त्वम्' (४-१०) इत्यादिना स्वसाध्यप्रतिबिम्ब(बन्ध) एव हेतोः निश्चितोऽभिधीयते न दर्शनादर्शनमात्रम्, जाता है - उसी तरह भाव से विनिर्मुक्त अभाव का संवेदन शक्य न होने से (अन्य) भाव को ही अभाव माना जाता है। (इसीलिये अभाव का ‘अस्ति' रूप से अनुभव होता है।)
[वैशेषिक मतानुसार अभाव में कार्यता संगति ] 15 वैशेषिकों की मान्यता है - अन्य दण्डादि भाव के संसर्ग की अपेक्षा नहीं रखनेवाला सीर्फ प्रच्युति __ (= स्वरूपभंग) रूप ही प्रध्वंसाभाव बौद्ध विद्वान् भले ही मानते हो, किन्तु तथास्वभावी प्रध्वंस के साथ
सहेतुकता का कोई विरोध नहीं है। देखिये - 'बोधगोचरप्राप्त (यानी उपलब्धिलक्षण प्राप्त) पदार्थ (= इन्धन) अग्निसांनिध्य के बाद में (नाशपर्यायापन्नभाव) उपलब्ध नहीं होता। तो वह नाश अग्नि का कार्य
क्यों नहीं होगा ?" – (हेतुबिंदुटीका) इस से फलित यह होता है कि अनुमान से सिद्ध हो सकता है 20 कि पदार्थों का प्रध्वंस कारणाधीन ही होता है। क्योंकि ध्वंस-कारणों के संनिधान के पहले भाव कभी विनाशालिंगनप्राप्त नहीं होता। निष्कर्ष :- भावों की क्षणभंगुरता स्वीकारोचित नहीं है।
[क्षणिकत्वसिद्धि-ऋजुसूत्रानुसारी बौद्ध उत्तरपक्ष ] ऋजुसूत्रनयमतवादी अथवा बौद्धमतवादी अब स्थैर्यवादीमत की आलोचना में कहते हैं - स्थैर्यवादी 25 ने जो कहा (४-१६) प्रत्यक्ष से क्षणिकता का भान नहीं होता - इस के विरुद्ध - प्रत्यक्ष ही भावों की
क्षणभंगुरता को भाँप लेता है इस तथ्य का प्रतिपादन दूसरे खंड में पहले वेदान्तवादिमत के निरसन में किया जा चुका है (")। यह जो कहा था (४-२३) अनुमान से भी क्षणिकता की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि लिङ्ग में पक्षधर्मत्वादि सामान्य लक्षण की, अथवा स्वभाव-कार्यत्वादि विशेष लक्षण की संगति नहीं होती।
यह असंगत है क्योंकि हेतु में 'सपक्षे सत्त्व' इत्यादि (४-२५) सामान्यलक्षण के बहाने हमारा अभिप्राय 30 है कि हेतु में निश्चितरूप से अपने साध्य के साथ प्रतिबद्धता यानी अव्यभिचारिता होनी चाहिये, सपक्ष
का अस्तित्व चाहे हो या न हो. उस में हेत की सत्ता का दर्शन हो या अदर्शन - यह कोई महत्त्व 1. वेदान्तवादिमतनिराकरणं द्वि० खण्डे पृष्ठ २८० तः २९४ मध्ये पृ.३०६ तः ३३६ मध्ये दृष्टव्यम् ।
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