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संक्षिप्त जैन इतिहास |
और स्वतन्त्र धर्म है । वह वैदिक और बौद्ध मतों से भिन्न है । उसके माननेवाले भारतमें एक अत्यन्त प्राचीन काळसे होते माये हैं । भारतका प्राचीनतम पुरातत्व इस व्याख्याका समर्थक है; क्योंकि उसमें जैनत्वको प्रमाणित करनेवाली सामिग्री उपलब्ध है ।
'संक्षिप्त जैन इतिहास' के पूर्व मार्गो में इस विषयका सप्रमाण स्पष्टीक रण किया जाचुका है; इसलिये उसी विषयको यहां दुहराना व्यर्थ है । उसपर ध्यान देनेकी एक खास बात यह है कि जैनधर्म वस्तुस्वरूप मात्र है - वह एक बिज्ञान है । ऐसा कौनसा समय हो सकता जिसमें जैनधर्मका अस्तित्व तात्विक रूपमें न रहा हो ? वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों की 'देन' है, जो तीर्थङ्कर कहलाते थे । इस काल में ऐसे पहले तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव थे । इस युगमें उन्होंने ही सर्व प्रथम सभ्यता, संस्कृति और धर्मका प्रतिपादन किया था । उनका प्रतिपादा हुआ धर्म उत्तर भारत के साथ ही दक्षिण भारत में प्रचलित हो गया था। जैन एवं स्वाधीन साक्षीसे यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में जैनधर्म्म एक अत्यन्त प्राचीनकाल से फैला हुआ था । पंचपाण्डवों के समय में उस देशमें तीर्थङ्कर भरिष्टनेमिका विहार होने के कारण जैनधर्म्मका अच्छा अभ्युदय हुआ था ।
इन सब बातोंको जिज्ञासु पाठक महोदय इस इतिहासके पूर्व खण्ड ( भा० ३ खण्ड १ ) में अवलोकन करके मनस्तुष्टि कर सकते हैं । उस खण्ड के पाठसे उन्हें यह भी ज्ञात हो जायगा कि विन्ध्याचल पर्वत के उपरान्त समूचा दक्षिण प्रदेश ऐतिहासिक घटनाओंकी भिन्नताके कारण दो भागों में विभक्त किया जाता है ।
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