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अथ श्री संघपट्टक
( ८१ )
केन जे जिन प्रतिमाने श्रर्थे निपजावेला स्थानकमां श्रधाकर्मादि दोषने पेसवान वकाश पण नथी माटे अनुमान निर्वाध बे, केम जे मुनिने कर्यु होय तो तेमां ते श्रधाकर्मादि दोष होय ने या तो मुनिने यें कर्यु नथी माटे श्राधाकर्मी दोष नयी.
टीका:- तथागमोक्तत्वमप्यस्यास्ति ॥ तथा चागमः ॥ " निस्सककम निस्सकमे” वावि चेइए सव्वहिं थुई तिन्निवेलं व वेश्याशि व नाउं क्कि किया" वि ॥
अर्थः- तेमज श्रागममां कहुं बे जे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत ए सर्वे चैत्योमां त्रण थुइ देवी बाकी असुर थती होय - थवा काका चैत्यो होय तो एक एक थुइ पण पाय डे.
टीकाः ॥ यत्र हि निश्राकृतव्यपदेशात् चैत्यवासः साधूनां सिध्यति ॥ अन्यथा यत्र साधूनां निश्रा तन्निश्राकृतमित्यन्वर्थानुपपत्तेः ॥ तन्निवासेनैव तन्निश्रायाः संभवात् ॥ यदि च साधूनां तत्र वासो न स्यात् तदाऽनिश्राकृतमेवैकं चैत्यं जवेत् ॥ श्रन्यस्य निश्राकृतपदवाच्यस्यानुपपत्तेः ॥
अर्थः- या शास्त्र वचनमां निश्राकृत एवं चैत्य एम कहेवापडे, ए हेतु माटे साधुने चैत्यवास सिद्ध थयो. ने जो एम न कहीए तो जे साधुनी निश्राये कर्यु ते निश्राकृत कहीए ए प्रकारना साचा अर्थनी सिद्धि न थाय ए हेतु माटे साधुना निवासे करीनेज साधुनी निश्रानो संजय वे, ने जो साधुनो निवास चैत्यमां न होय तो निश्राकृत एवं एकज चैत्य कहेत, माटे निश्राकृत पदवमे कहेलुं जे बीजुं चैत्य तेनी सिद्धी न थाय ए हेतु माटे साधुने चैत्यमा रहेवानुं सिद्ध ययुं.