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अब श्री संघपट्टक
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अर्थःथा जगाएं, ए लिंगधारीउँनुं मन' क्रूररुप निपंजा. वेलु एम स्थापन कयुं तेणे करीने ए मनन वीजा लोकना मननी साथै सजातिपणुं हर्तुं एंटले सरखापणुं हतुं ते पण निवारण कयु माटे एम' पण संजीवनी करु ढुंजे बीजा लोकना मनथी कोई विवक्षण सामग्रीवके ए मन नत्पन्न थयु ले माटे विजाति , केम जे मृतिकानी पिम तथा दंम इत्यादि कारणथी घट नपन्न थाय ने. तथा तांतणा तथा तेमनी मेळवणी करनार काष्ट इत्यादि सामग्री बने पट उत्पन्न थाय ने ते वेनी कारण सामग्री जुदी जुदी में तो तथी उत्पन्न थयु में कार्य ते पण जुई जुउँ विजाति . पण स. जोति नथी एंटले सरखों नयो एटले मृतिकादिकथी पटं उत्पन्न थती नथी ने तातणाव घट उत्पन्न थता नथीने घटने पट न के हवाय, ने पटने घट न कहेवाय निश्चे तेम ते लिंगधारीनना मनने क्यारे पण शुनं नावनी प्राप्ति थती नथी कमजे सेंकों प्रकारनी चतुराई करें तो पणे करीतानी साकर करवाने समर्थ न थवार्य: माटे पोतपोतानी सामग्रीयो विजातिपणे लिंगधारीनु मन तथा लोकनुं मन ते कया हेतुथी सरखापणे जाणीए 'अपितु' को कारपथा जणाय एम' नथी एंटलें कालकूटादि सामग्री थकी उत्पन्न थयेख में लिंगधारी जनुं मन ते लोकना' मन जैबु केमे कवाय
ति जावः
को अथवा मनःसिमेव ॥ तस्य तु क्रूरत्वं विधयो त कालकूटीदितिः सायं ॥ श्रथास्मिन्पर्श क्रूरत्वस्योंपोधिकत्वात् अपंगमप्रसंगों वस्त्रादिषु महारंजनरागस्य तथा बनादितिचेत न नपाधिकस्यापिधर्मस्य कयाचित्सामग्या जन्य