Book Title: Sanghpattak
Author(s): Jinvallabhsuri
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

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Page 642
________________ (६२) - अथ श्री संघपट्टकःकहेता हो तो ते वाक्य अमारे मान्य अने महाजन शब्दे करीने घषा लोक' एम श्रर्थ करो तो “बहु जण पमी वत्ती" इत्यादिशास्त्र वचने करीनेज ए न्यायने बाध लाग्यो, माटे ए वाक्यनो अंगीकार नथी करता. टीका:-तथा यदि परगृहवासिनो महात्मानः सुविहिताः , सत्पथकुपथविजागापनायारक्तष्टितया नव्येन्यः सु. ,विहितदुर्विहितगुणदोषाविर्जावकं यथावस्थितमागमार्थ व्या चक्षते ॥ नैतावता त उपालंजमर्हति ॥ आत्मोत्कर्षपराप. “कर्ष विख्यापयिषयैव तहाख्यानस्य सुछ विनाममाण मित्यादिनात्मस्तुतिपरनिंदानावेन यतिनां दोषतयानिधानात् ॥ अर्थ:-वळी परघरवासी महात्मा सुविहित पुरुष सत्मार्ग अने कुमार्ग ए बेनो विजाग जणाववाने रागद्वेष रहित नव्य प्राणी प्रत्ये सुविहितना गुण तथा पुर्विहितना दोष जेम डे तेम प्रगट करनार एवो आगमनो अर्थ कहे . तेणे करीने ते सुविहित पुरुषो उलंन्नो देवा योग्य नथी. जो पोतानो उत्कर्ष जगाववानी इच्छा. येज " सुविनज्जममाण" इत्यादि पोतानी स्तुति अने परनिंदानो जाव राखीने कहेता होय तो दोषपणुं कहेवाय पण ते तो तेमने नथी. । टीका अन्यथा तीर्थकर गणधरादीनामप्यसंयतदोष प्रतिपादकमागमग्रंथं प्रथ्नतां परनिंदकत्वेन दृषणापत्तेः ॥ ऐदं '.. युगीनसंघप्रवृति परिहारेण च संघ बाह्यत्वप्रतिपादनममीषां भूषणं न तु दुषणं ॥ तत्प्रवृत्तेरुत्सूत्रत्वेन तत्कारिणां दारुषा

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