Book Title: Sanghpattak
Author(s): Jinvallabhsuri
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

View full book text
Previous | Next

Page 651
________________ - अथ श्री संघपट्टका - (६२९ टीका:-यदि ह्येतदनुचितं स्यात्तदा तदज्ञानानंतरं कोपो. पि कर्तुं कथंचित् युज्येत ॥ न चैवं तस्मान्न कोपनीयं ॥ अथ यद्येवं मिथ्यापथकथनेन परेषां कोपावि वशंका तदासौ न कथनीय एव ॥ परं संक्लेशदेतोः सत्यस्यापि वचनस्यावक्तव्य त्वेनानिधानात् ॥ ___ अर्थः-जो आ कहे निश्चे अनुचित होय तो ते जाणवा पजी को प्रकारे कोप पण करवो घटे, पण आ तो एम नथी माटे कोप न करवो. हवे जो एमज होय के मिथ्या मार्गनुं जे कहेवं तेणे करीने परने कोप नत्पन्न थशे एवी शंका रही , तो ए वात कहेवीज नहीं. केम जे परप्रत्ये क्वेश उत्पन्न थवा कारणरूप एवं सत्य वचन पण न बोलवू एम शास्त्र वचन बे. टीका:-यक्तं सञ्चावि सा न वत्तवा, जन पावस्ल आगमो॥ इत्यतया ।। यस्माद्यतो देतो नत्रांत्या साधुसाध्वीश्रावकश्राविका चैत्याद्याकारदर्शनादाईतमेतत्प्रवचन मिति मिथ्याज्ञानेन नहि लिंग्यादयस्तत्वत आहता उक्तन्यायेन तेषां तथा त्वस्यापा. करणात् ॥ अर्थः-ते कही देखाम ठे जे, जेधी पाप लागे एवी सत्व

Loading...

Page Navigation
1 ... 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703