Book Title: Sanghpattak
Author(s): Jinvallabhsuri
Publisher: Jethalal Dalsukh Shravak

View full book text
Previous | Next

Page 656
________________ (६३४.) - अथ श्री संघपटक wwwA namanna श्रतः कुपथपंकनिमज्जनरनिकरोखरणाय मया किंचिज्जहिपतमिदमितिसुष्टुक्तं जगवता प्रकरणकारेणेतिवृत्तार्थः ॥ अर्थः-ए हेतु माटे कुमार्गरूपी कादवने विषे बूमता लोकंना समूदने देखी तेनो उद्धार करवाने अमोए आ कांक का, माटे समर्थ एवा या प्रकरणना करनारे लिंगधारीनुं स्वरूप निरुपण कर्यु ते वीकज कयुबे, ए प्रकारे या काव्यनो अर्थ थयो. ॥३४॥ टीका:--अथ किमिति दिग्मात्रमेवान्निहितं यावता नि: शेषदोषप्रकाशनेन हि मिथ्यापथः सुज्ञानः सुत्यजश्च जवती त्याशंक्य तन्निरालद्योतकेन यत इति पदेनांतरापूर्य तदोषाणा'मानत्येनानिधानाशक्यत्वं निदर्शनया विवियत्राह ॥ यतः॥ अर्थः-शा कारण माटे लिंगधारीना स्वरूपर्नु निरुपण दिशमात्रज देखामयुं? जेवू डे तेवु समस्त देखामयुं होय तो निश्चे मिथ्यामार्ग सुखेथी जाणवामां आवे तथा सुखेथो त्याग थाय एवी आशंका मनमां धरी तेनुं खेमन जपावनार 'यत' एप्रकारनु पद कचे मुको तेनो उत्तर या प्रकारे , एम कहेतां ग्रंयकार जणावे में जे ते लिंगधारीउना समस्त दोष अनंता , ते सर्वे दोष कहेवार्नु मारु सामर्थ्य नथी एप्रकारे निदर्शनाअलंकारवमे प्रगट करता बता श्रा प्रकारतुं काव्य कहे जे.

Loading...

Page Navigation
1 ... 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703