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8. अथ श्री संघपटक ......(१०५) टीका:-यमुक्तं उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान् प्रति ॥ यस्य मेऽकार्य कार्य स्यात्कार्यं कर्म च वर्जयेदिति॥ . अर्थः-जे माटे शास्त्रमा कयु जे जे देश कालने रोगादि प्रत्ये मारी ते अवस्था उत्पन्न थाय ने जेमा न करवानुं करवा योग्य थाय डे ने करवा योग्यनो त्याग थाय ने ॥७॥ . . . . टीका:-तथा श्रुतस्य सिद्धांतस्य पंथा मार्गस्तत्रावज्ञा
मादरस्तेह्येवमाहुः नगवसिद्धांतो हि नैकांतेनैव विहितानु· टाननिष्टः निषिमानुष्टाननिषेधनिष्टोवास्ति॥ विहितानामपि केषांचिदनुष्टानानां कचिनिषेधात् ॥ निषिद्धानामपि कचिद्विधानात् ॥ अतोनास्थामास्थाय. सिद्धांतव्यवस्थया केवलया किमपि कर्तुं परिहर्नु वा पार्यते ॥ ...... ... अर्थः-वळी सिद्धांतनो जे मार्ग तेनो अनादर ते लिंगधारी एम कहे जे नगवाननो जे सिद्धांत ठे ते अनेकांत-जे ते एकांतपणे करवा योग्य जे अनुष्ठान क्रिया तेने विषे तत्पर नथी. एटले एकांतपणे था क्रिया तो करवीन एम सिद्धांत कहेतुं नथी. ने निषिद्ध जे अनुष्टान तेनो निषेध करवामां पण तत्पर नथी. एटले एकांतपणे आ किया तो नज करवी एम सिद्धांत कहेतुं नथी केम जे करवा योग्य केटलांक अनुष्टान तेनो परा कोइ जगाए निषेध देखाय ए हेतु माटे ने निषेयं करेला पण केटलांक अनुष्टान तेनुं को जगाए करवापणुं २ ए हेतु माटे. केवल सिद्धांतमां कहे, जे ते उपर आस्था राखोने का पण करवा योग्य तया परिदवा योग्य पार पासोए एम नयो.