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अथ श्री संघपट्टका
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स्वग्रंथेषु वसति विस्तरेण यतीनां व्यवस्थाप्य क्वचिदागम वि. रुकचैत्यवास मनिधास्यति ॥ आगमविरोधश्चात्र स्फुटएव ॥
अर्थः-माटे ए वात जो ए प्रकारे न होय अने तुं कहे ले ते प्रकारे होय तो एवा मोटा पुरुष श्रतधर पंचवस्तकादि पोताना ग्रंथने विषे साधुने वसतिमां निवास करवो एम विस्तार सहित स्थापन करीने क्यारे पण श्रागम विरुक एवा चैत्यवासन स्थापन थाय एवं कहेज नहीं ने ते आगम विरुष्क तो आ जगाए प्रगटज देखाय के.
टीकाः-तथाहि ॥ अवस्यपिण्यां सुषमःषमाउ:षम सुषमयोः सामान्येनैव केवलज्ञानोत्पादप्रतिपादनात् ॥ दुष' मायां तु चतुर्थारकप्रव्रजितानामेव तदनिधानात् ॥ चैत्यवासस्य चानंत तमेन कालेन दुःषमायामेक्समाम्नातत्वात्॥
अर्थ:-तेज विरोध देखामे ले जे अवसर्पिणी कालमा सुख दुःखमा जे त्रीजो धारो ने दुःखमसुखमा जे चोथो आरो तेने विषे सामान्ये करीने ज केवलज्ञाननी उत्पत्तिनुं प्रतिपादन कयु डे माटे अने पु:खमा जे पांचमो आरो तेने विषे तो जे चोथा आरामां प्रव्रज्यो होय तेनेज केवलझान थाय, बीजाने न थाय एम कयुं ने ए हेतु माटे चैत्यवासनुं अनंतेकाले दु:खमा कालमांज थवापर्यु कडं माटे ए विरोध जणातोज .
टीका:-नच तदारंजएव चैत्यवासान्युपगम इतिवाच्यं ॥