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[ १२ । अतः धूमकेतुके समयमें भी चतुर्विध सङ्घ का बना रहना सिद्ध होता है । तथापि जो तेरह पन्थी बीच में चतुर्विध सङ्घ के टुटने की प्ररूपणा करते हैं वह एकान्त मिथ्या है। ... तेरह एन्थियोंको अपने सिद्धान्तका समर्थक जब कई प्रमाण नहीं मिलता तब वे लाचार होकर सङ्घका टूटना बतलाने लगते हैं। लेकिन इन की यह बात भी जब भगवती शतक २० उद्देशा ६ के मूलपाठके विरुद्ध टहराई जाती है तब वे क्रोधान्ध हो कर पूछने वालेको अपमानित करने लगते हैं।
इनके जितने प्रन्थ बने हैं उन सबोंका एकमात्र उद्देश्य दया दानका वहिष्कार करना ही है । पर सभी प्रन्थोंमें जितमलजाका बनाया हुमा भ्रमविध्वंसन ग्रन्थ प्रधान है। इसमें बड़ी चातुरीके साथ दयादानका खण्डन किया है। इसी एक दयादान का खण्डन करनेके लिये भ्रमविध्वंसनकारको अनेकों जगह शास्त्र के अर्थको अनर्थ करना पड़ा है। जैसे महाजनकी बहीमें एक जगह परिवर्तन होने पर सारी बहीके रकम बदलने पड़ते हैं उसी तरह एक दयादानका खण्डन करने के लिये जीतमलजी को अनेकों शास्त्र विरुद्ध बातें स्वीकार करनी पड़ी हैं। जैन दर्शन तथा जैनेतर दर्शन सभीका यह सिद्धांत है कि अंज्ञान तथा विथ्यात्वके साथ की जाने वाली क्रिया मोक्ष देनेवाली नहीं होती और उस क्रियाका आराधक पुरुष मोक्षमार्गका आराधक नहीं होता किंतु सम्यक्त्व
और ज्ञानपूर्वक की जानेवाली क्रिया ही मोक्षदायिका होती है पर दयादानका खण्डन करनेके लिये तेरह पन्थियोंको अज्ञान और मिथ्यात्वले की जानेवाली क्रिया से भी मोक्षमार्गकी अराधना स्वीकार करनी पड़ी है।
• जैन और उससे इतर शास्त्रोंकी एकमतसे मिथ्यात्विकी क्रिया के विषयमें यही मान्यता है कि मिथ्यात्विकी क्रियासे मोक्षमार्गकी आराधना नहीं होती। देखिये बृहदारण्यक उपनिषदमें लिखा है कि- "योवा एतदक्षरं गार्यविदित्वाऽस्मिल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते वहूनि वर्ष सहस्राण्यन्तवदेवास्यतद्भवति
अर्थ हे गार्गि ? जो अविनाशी-आत्माको बिना जाने इस लोकमें होम करता है यज्ञ करता है तपस्या करता है वह चाहे हजारों वर्ष तक इन क्रियाओं को करता रहे पर वह संसारके लिये ही हैं। (वृहदारण्यक) ..
प्राचीन कालसे ले।र इस समय तकके प्रत्येक आस्तिक आर्या धर्मने आत्माका आत्माके वन्धनका और मोक्षका वर्णन किया है। जैसे अहिंसा या दयाके विषयमें ये सब धर्म एक मत है वैसे ही इस मान्यता में भी किसीको विवाद नहीं है कि विना
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