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श्री राजेन्द्रसूरि-वचनामृत ।। की बुराई करने की अपेक्षा अपने आत्मदोषों की बुराई करना उत्तम है । दूसरों की बरा. बरी करने की अपेक्षा अपनी निर्वलता की चिन्ता करना अच्छा है। अपनी आत्मप्रशंसा करने की अपेक्षा गुरु, देव या महान् पुरुषों की प्रशंसा करना या सुनना सर्वोत्तम है । इन बातों के गुण या अवगुण को भलिविच समझ कर जो उनके अनुरूप चलने का प्रयत्न करता है, उसीको उत्तमता मिलती है ।
६५ जिस व्यक्ति में किसी प्रकार की विधा है और न तपगुण, न दान है और न आचारविचारशीलता, न औदार्यादि प्रशस्त गुण हैं और न धर्मनिष्ठा । ऐसा निर्गुण व्यक्ति उस पशु के समान है जिसके शीग और पूंछ नही हैं, बल्कि उससे भी गयागुजरा है। जिस प्रकार सुंदर उपवन को हाथी और पर्वत को वन चौपट कर देता है, उसी प्रकार गुणविहीन नरपशु की संगति से गुणवान व्यक्ति भी चौपट हो जाता है । अतः गुण. विहीन नरपशु की संगति भूल करके भी नहीं करना चाहिये !
६६ हाथों की शोभा सुकृत-दान करने से, मस्तिष्क की शोभा हर्षोल्लासपूर्वक वंदननमस्कार करने से, मुख की शोभा हित, मित और प्रिय वचन बोलने से, कानों की शोभा बाप्तपुरुषों की वचनमय वाणी श्रवण करने से, हृदय की शोभा सद्भावना रखने से, नेत्रों की शोभा अपने इष्टदेवों के दर्शन करने से, भुजाओं की शोभा धर्मनिन्दकों को परास्त करने से और पैरों की शोभा बराबर भूमिमार्ग को देखते हुए मार्ग में गमन करने से होती है। इन बातों को भलीविध समझ कर जो इनको कार्यरूप में परिणित कर लेता है वह ही अपने जीवन का विकास कर लेता है और अपने मार्ग को निष्कंटक बना लेता है।
६७ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, मंघ के ये चार अंग है। इनको शिक्षा देना, दिलाना, बस्त्रादि से सम्मान करना, समाजवृद्धि के लिये धर्मप्रचार करना-कराना, हार्दिक शुभ भावना से इनकी सेवा में कटिबद्ध रहना और इनकी सेवा के लिये धनव्यय करना । इन्हीं शुभ कार्यों से मनुष्य वह पुन्यानुबंधी पुन्य उपार्जन करता है जो उसको उत्तरोत्तर ऊंचा पढ़ाकर अन्तिम ध्येय पर पहुंचा देता है और उसके भवभ्रमण के दुःखों का अन्त कर देता है।
६८ शास्त्रकारोंने जाति से किसीको ऊँच, नीच नहीं माना है, किन्तु विशुद्ध आचार और विचार से ऊंच, नीच माना है। जो मानव ऊंचे कुल में उत्पन्न हो करके भी अपने आचारविचार घृणित रखता है वह नीच है और जो अपना आचारविचार सराहनीय रखता है वह नीच कुलोत्पन्न हो करके भी ऊंच है । अजैन शास्त्रकार भी इसी प्रकार आ